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________________ २६६ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा क्योंकि इच्छा राग का परिणाम है। केवली भगवान समस्त विकल्पों से रहित हैं। केवली भगवान के आयुष्य के क्षय होने पर उनकी समस्त कर्म प्रकृतियाँ क्षय हो जाती हैं और वे समय मात्र में ही लोकाग्र पर स्थित हो जाते हैं। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने नियमसार में सर्वप्रथम सयोगी केवली (अर्हत् परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया है। आगे वे इसी क्रम में सिद्ध परमात्मा का वर्णन करते हैं।” सिद्ध परमात्मा जन्म-जरा-मृत्यु से रहित हैं। वे परम पारिणामिक भाव द्वारा अपने स्व-स्वभाव में रमण करने वाले होने के कारण परमात्मा कहलाते हैं। वे अष्टकर्मों से रहित हैं। सिद्धपरमात्मा अक्षय, अविनाशी, अछेद्य और ज्ञानादि चार स्वभाववाले हैं।२२ यहाँ पर आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि सिद्धपरमात्मा अव्याबाध, अतीन्द्रिय एवं अनुपम हैं। वे पुण्य, पाप से एवं पुनरागमन से रहित हैं।२३ वे नित्य हैं, अचल हैं और निरालम्ब (अनालम्ब) हैं। वे आगे कहते हैं कि सिद्धालय में जहाँ सिद्ध परमात्मा विराजमान हैं वहाँ न दुःख है, न सुख। न ऐन्द्रिक विषयजन्य सुख है, न पीड़ा है, न बाधा है। न मरण है और न जन्म।" वहाँ इन्द्रियों के उपसर्ग नहीं हैं, मोह नहीं है, विस्मय नहीं है, निद्रा नहीं है। तृष्णा नहीं है और क्षुधा भी नहीं है। क्योंकि वे शरीर, इन्द्रियों एवं मन से रहित हैं। अतः तद्जन्य उपसर्गों का सिद्धावस्था में अभाव होता है।६ २१ 'अप्पसरुवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं । जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।। १६६ ।।' –नियमसार (शुद्धोपयोगाधिकार) । 'मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव् च । पेच्छं तस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ ।। १६७ ।।' -वही । 'जाइजरमरणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं । ____णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं ।। १७७ ।।' - -वही । २४ 'अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं । पुणरागगमण विरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं ।। १७८ ।।' -नियमसार (शुद्धोपयोगाधिकार) । २५ ‘णवि दुक्खं णवि सुखं णवि पीड़ा व विज्जदे बाहा । णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होई णिव्वाणं ।। १७६ ।।' २६ ‘णवि इन्द्रिय उवसग्गा णवि मोहोविम्हिओ ण णिद्दा य । ण य तिण्हा णेव छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।। १८० ।।' -वही । -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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