________________
२६४
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
सर्वज्ञ, सर्वदर्शी केवलज्ञान से युक्त शुद्धात्मा ही परमात्मा है। उसे सिद्ध भी कहा जाता है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यकूतप ये चारों आत्मा में स्थित हैं। इसलिए अन्तरात्मा यह मानती है कि आत्मा ही मेरे लिए शरण है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने आत्मतत्त्व को अनिर्वचनीय तत्त्व कहा है।
(ख) नियमसार के अनुसार परमात्मा ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड के अतिरिक्त नियमसार के शुद्धोपयोग अधिकार में परमात्मा के स्वरूप को स्पष्ट किया है। विशेषरूप से यहाँ उन्होंने परमात्मा के विशिष्ट लक्षण केवलज्ञान को लेकर ही चर्चा की है। इस चर्चा में सर्वप्रथम उन्होंने प्रश्न उठाया है कि केवली भगवान क्या जानते हैं और क्या देखते हैं? वे कहते हैं कि केवली भगवान सर्वद्रव्यों और उनकी सर्वपर्यायों को जानते और देखते हैं; यह केवल व्यवहारनय का कथन है। वस्तुतः परमात्मा अपनी आत्मा को ही जानते और देखते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार केवलज्ञानी भगवान का दर्शन
-वही।
१६ 'सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरिसी य ।
सो जिणवरेहिं भणियो जाण तुमं केवलं णाणं ।। ३५ ।।' १७ (क) 'रयणत्तयं पि जोई आराहइ जो हु जिणवरमएण ।
सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परं ण झदेहो ।। ३६ ।।' _ 'रयणत्तयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्यो ।
आराहणाविहाण तस्स फलं केवलं गाणं ।। ३४ ।।' 'जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च सणं णेयं । तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ।। ३७ ।। 'तच्चरुई सम्मतं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं । चारित्तं परिहारो परूवियं जिणवरिंदेहिं ।। ३८ ।।' 'जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए ।
सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ।। ४३ ।।' (च) जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं ।
तं चारित्तं भणियं अवियप्प कम्मरहिएहिं ।। ४२ ।।' १८ 'जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।। १५६ ।।'
-वही ।
-नियमसार १२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org