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________________ परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार २८६ परम्परा में प्राचीन काल में सामान्य केवली और तीर्थंकर दोनों को ही अर्हत्-पद का धारक माना जाता है किन्तु तीर्थकर में इतना विशेष होता है कि वह चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करता है और धर्ममार्ग का पुनः प्रवर्तन करता है। तीर्थ शब्द साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ का वाचक है। जो चतुर्विधसंघ की स्थापना करता है, वह तीर्थंकर कहा जाता है। तीर्थंकर शब्द का उल्लेख स्थानांगसूत्र, समवायांग, भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र में उपलब्ध होता है, किन्तु कालक्रम की दृष्टि से ये सभी आगम परवर्ती माने गये हैं। प्राचीन स्तर के आगमों में आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र और ऋषिभाषित आते हैं किन्तु इन आगम ग्रन्थों में केवल उत्तराध्ययनसूत्र में ही तीर्थंकर शब्द प्राप्त होता है। आचारांगसूत्र आदि ग्रन्थों में अर्हत् शब्द का प्रयोग ही अधिक हुआ है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुत-स्कन्ध में भूतकाल और भविष्यकाल के अर्हतों की अवधारणा मिलती है। तीर्थ शब्द का सामान्य अर्थ यह है कि नदी आदि का वह घाट जहाँ से उसे सुविधापूर्वक पार किया जा सकता है। इस अपेक्षा से तीर्थंकर उन्हें कहा जाता है जो संसार के प्राणियों को संसार समुद्र से पार होने का मार्ग बताते हैं। विशेषावश्यकभाष्य में तीर्थ की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि जिसके द्वारा पार हुआ जाता है, उसको तीर्थ कहते हैं। इस आधार पर जिन-प्रवचन तथा ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न संघ को भी तीर्थ कहा गया है। तीर्थ के चार प्रकार किये गये हैं : १. नाम तीर्थ; २. स्थापना तीर्थ ३. द्रव्य तीर्थ; और ४. भावतीर्थ । तीर्थ नाम से सम्बोधित किये जानेवाले स्थानादि नाम तीर्थ कहे जाते हैं। जिन स्थानों पर भव्य आत्माओं का जन्म, मुक्ति आदि होती है और उनकी स्मृति में मन्दिर, प्रतिमा आदि स्थापित किये जाते हैं, वे स्थापना तीर्थ कहलाते हैं। जल में डूबते हुए व्यक्ति को (क) 'तिथ्यं पुण चाउवण्णे समणसंधे समणा, समणीओ, सावयाष्सावियाओ ।। ७४ ।।' -भगवतीसूत्र शतक २०/८ । (ख) योगबिन्दु २८७-२८८ । आचारांगसूत्र १/४/१/१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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