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११. भिक्षाचारी
मुनि की भिक्षाचारी के सम्बन्ध में उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया
है :
उसे गवेषणा, ग्रहणेषणा तथा परिभोगेषणा का पालन करना चाहिये। इसमें गवेषणा के अन्तर्गत उद्गम के १६ और उत्पादन के १६ तथा ग्रहेषणा के अन्तर्गत एषणा के १० और परिभोगेषणा के ५ दोष होते हैं। ये मूल ४७ दोष निम्न हैं : २२२
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
उद्गम के दोष
१. आधाकर्म; २. औद्देशिक; ३. पूतिकर्म; स्थापनाकर्म; ६. प्राभृत; ७. प्रादुष्कण; ८. क्रीत; परावर्त; ११. अभिहृत; १२. उद्भिन्न; १३. मालापहृत; १४. आच्छेद्य; १५. अनिसृष्ट; और १६. अध्वपूरक ।
४. मिश्रजात; ५. ६. प्रामिला; १०.
उत्पादन के दोष :
१. धात्री; २. दूती; ३. निमित्त; ४. आजीविका; ५. वनीपक; ६. चिकित्सा; ७. क्रोधपिण्ड; ८. मानपिण्ड; ६. मायापिण्ड; १०. लोभपिण्ड; ११. संस्तव; १२. विद्या; १३. मन्त्र; १४. चूर्ण; १५. योगपिण्ड; और १६. मूलदोष ।
१. शंकित; २. भ्रमित; ६. दायक; ७. उन्मिष;
२२२
एषणा के दोष
३. निक्षिप्त; ४. पिहित; ५. ८. अपरिगत; ६. लिप्त; और १०
परिभोगेषणा के दोष
१. संयोजना; २. अप्रमाण; ३. अंगार; ४. धूम; और ५. अकारण ।
१२. सचेल - अचेल
दिगम्बर परम्परानुसार अचेल (निर्वस्त्र) ही मुनिपद का अधिकारी है। श्वेताम्बर परम्परानुसार अचेल और सचेल दोनों ही मुनिपद एवं मोक्ष के अधिकारी हैं । यापनीय परम्परानुसार मुनि की अचेलता श्रेष्ठ मार्ग है सचेलता अपवाद मार्ग है, मूलमार्ग
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वही टीका पत्र ७२६- ३४ (लक्ष्मीवल्लभगणि) ।
संह्यत;
छर्दित ।
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