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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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नहीं।
इस समस्या के साथ जैनधर्म में चैत्यवास और बनवास की परम्पराएँ भी हैं। चैत्यवास की परम्परा परवर्तीकाल में विकसित
हुईं।
उत्तराध्ययनसूत्र में मुनि के ठहरने का स्थान, जिसे उपाश्रय या वसति कहते हैं, उसका वर्णन इस प्रकार मिलता है :
१. उपाश्रय सुसज्जित न हो; २. उपाश्रय एकान्त एवं शान्त हो; ३. उपाश्रय परकृत हो; ४. मुनि के लिए परिष्कृत न हो; ५. जीवादि से रहित हो; ६. ब्रह्मचर्य के पालन में सहायक हो।
४.३.४ उत्कृष्ट-मध्यम अन्तरात्मा
इस वर्ग के अन्तर्गत वे आत्माएँ आती हैं जो अपनी विकास यात्रा को गतिशील रखने के लिए श्रेणी आरोहण करती हैं। जैनदर्शन के अनुसार साधक यह आध्यात्मिक विकास यात्रा दो मार्गों से करता है :
१. उपशम श्रेणी; और २. क्षपक श्रेणी। जो साधक वासनाओं और कषायों को उपशमित करते हुए अपनी विकासयात्रा करता है, वह आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से प्रारम्भ करते हुए अन्त में ११वें उपशान्तमोह गुणस्थान तक अपना आध्यात्मिक विकास करता है। किन्तु दमित वासनाएँ और कषाय पुनः अभिव्यक्त होकर उसे साधना की इस उच्चतम अवस्था से गिरा देते हैं; पर जो साधक क्षायिकश्रेणी से अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है, वह वासनाओं और कषायों का उन्मूलन करता हुआ अन्त में १२वें क्षीणमोह गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह उत्कृष्ट अन्तरात्मा के पद को प्राप्त करता है।
जहाँ तक मध्यम-उत्कृष्ट आत्माओं का प्रश्न है, उनमें उपशम श्रेणी से आरोहण करने वाली आत्माओं में वे अपूर्वकरण
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