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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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१. आवश्यकी; २. नैषेधिकी; ३. आपृच्छना; ४. प्रतिपृच्छना; ५. छंदना; ६. इच्छाकार; ७. मिथ्याकार; ८. तथाकार; ६. अभ्युत्थान; और
१०. उपसम्पदा।
६. दिनचर्या __ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - "काले कालं समाचरे" अर्थात् सर्व कार्य समय पर करना चाहिये। मुनि-जीवन की दिनचर्या एवं रात्रिचर्या का भी निर्धारण किया गया है।२२० यह दिनचर्या इस प्रकार उपलब्ध होती है।
१. दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय; २. द्वितीय प्रहर में ध्यान; ३. तृतीय में भिक्षाचर्या; और ४. चतुर्थ में स्वाध्याय।
१०. प्रतिलेखन
उत्तराध्ययनसूत्र में मुनिचर्या के सम्बन्ध में प्रतिलेखन एवं आहारचर्या की चर्चा उपलब्ध होती है। यह मुनि-जीवन का अनिवार्य अंग है। द्रव्य से मुनि के उपकरण, वस्त्र, पात्र और रजोहरण आदि; क्षेत्र से उपाश्रय, स्वाध्यायभूमि, प्रतिस्थापनभूमि और विहारभूमि आदि; काल से स्वाध्याय काल और ध्यान काल आदि और भाव से मन में आने वाले शुभाशुभ भावों की प्रेक्षा करना होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार प्रतिलेखन के निम्न दोष हैं :
१. आरभटा; २. सम्मर्दा; ३. मोसली; ४. प्रस्फोटना; ५. विक्षिप्ता; ६. वेदिका; ७. प्रशिथिल; ८. प्रलम्ब;
६. लोल; १०. एकमर्शा; ११. अनेक रूप; १२. प्रमाण प्रमाद; और १३. गणनोपगणना
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उत्तराध्ययनसूत्र १/३१ । ' उत्तराध्ययनसूत्र २६/२७ ।
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