________________
सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखा है।
इन सभी गुरुबहनों के आत्मीय एवं स्नेहिल सहयोग से यह कार्य सम्पन्न हुआ। मैं इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर उनकी आत्मीयता को कम नहीं करना चाहती हूँ। इन सभी की स्नेहवृष्टि से मेरी श्रुतसाधना सदैव गतिशील बनी रहे, यही शुभेच्छा।।
स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् मैंने तथा प्रियवन्दनाश्रीजी ने पीएच.डी. करने का निर्णय लिया। हमने जयपुर प्रवास के दौरान समाज के कर्मठ सेवाभावी श्रीमान् विमलचन्दजी सा. सुराणा एवं उनकी धर्मपत्नी उदार हृदया, प्रमुख श्राविका श्री मेमबाईसा सुराणा के सत्प्रयास से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त, मूर्धन्य विद्वान, आगम-मर्मज्ञ, पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पूर्व निदेशक तथा प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर के संस्थापक श्रद्धेय डॉ. सागरमलजी सा. जैन से सम्पर्क किया। तभी से हमें डॉ. साहब का मार्गदर्शन उपलब्ध होता रहा। जब आपका जयपुर आगमन हुआ, तब आपने पूछा कि आप कैसा विषय लेना चाहती हैं। मैने उत्तर दिया कि मेरी आध्यात्मिक विषय में रुचि है। अन्ततः मैंने डॉ. साहब के द्वारा प्रस्तावित विषयों में से “जैनदर्शन में त्रिविध आत्मा” विषय का चयन किया। अपनी रुचि एवं अभिलाषा के अनुरूप विषय चुनने पर मुझे अति प्रसन्नता हुई। सौभाग्य से एवं डॉ.सा. की अनुकम्पा से प्रस्तुत विषय विश्व भारती संस्थान, लाडनूं के द्वारा स्वीकृत कर लिया गया। ___ मेरे पीएच.डी. के समग्र कार्य की इस पूर्णता का श्रेय निदेशक मूर्धन्य मनीषी डॉ. सागरमलजी सा. जैन को जाता है। उन्होंने शोध विषय को अधिकाधिक प्रासंगिक एवं उपादेय बनाने हेतु सतत मार्गदर्शन किया। डॉ. सा. अत्यन्त सरल, सहज, उदार तथा निःस्वार्थ सेवाभावी हैं। यद्यपि वे नामस्पृहा के लेशमात्र भी अभिलाषी नहीं हैं; तथापि इस शोधकार्य के सूत्रधार होने से उनका नाम प्रस्तुत कृति के साथ स्वतः ही जुड़ गया है। वे मेरे शोध-प्रबन्ध के मात्र निदेशक ही नहीं है, वरन् मेरे आत्मविश्वास के प्रतिष्ठापक भी हैं। उन्होंने मुझे सदैव परिश्रमपूर्वक शोधकार्य करने की प्रेरणा प्रदान की। इस वृद्धावस्था में भी आपने शारीरिक कष्टों की परवाह किये बिना नियमित मार्गदर्शन तथा कार्यावलोकन करके प्रस्तुत शोधकार्य को पूर्णता प्रदान की। इस हेतु मैं आपके
vi
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org