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१. ईर्यासमिति
इसका पालन करने हेतु आवश्यक कार्यों के लिए साधु को गमनागमन में सावधानी रखनी होती है । इस समिति में गमनागमन की क्रिया का विधान है । ईर्यासमिति का अर्थ है चलने में सम्यक् प्रवृत्ति करना । मुनि को चलते समय पाँचों इन्द्रियों के विषय एवं अध्यव्यसायों को छोड़कर मात्र चलने की क्रिया का ध्यान रखना चाहिये। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि आचारांगसूत्र में इस समिति की विस्तृत चर्चा निम्नानुसार है :
२.
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
पाँच समितियाँ
१. चलते समय सावधानीपूर्वक सामने की भूमि को देखकर चलना; २. चलते समय हाथ-पैरों को आपस में टकराना नहीं चाहिये;
उत्तराध्ययनसूत्र में ईर्यासमिति के नियम इस
प्रकार हैं : १. आलम्बन; २. काल; ३. मार्ग; और ४. यत्नादि । देवचन्द्रजी ईर्यासमिति की सज्झाय में आवागमन के चार कारण लिखते हैं :
१. जिनवन्दन; २. विहार; ३. आहार; और ४. निहार ।
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३. भय और विस्मय का त्यागकर चलना चाहिये;
४. भाग-दौड़ न करके मध्यम गति से चलना चाहिये; ५. चलते समय पैरों को एक दूसरे से अधिक अन्तर पर रखकर नहीं चलना चाहिये ।१६७
भाषासमिति
मुनि द्वारा भाषा का संयम या वाणी का विवेक रखना भाषा समिति है। मुनि को दोषपूर्ण, कर्कश, निष्ठुर और परिताप देनेवाले वचन नहीं बोलना चाहिये। मुनि को सावधानीपूर्वक बोलना चाहिये । उसे हित- मित, प्रिय और सत्य वचन बोलना चाहिये। साथ ही मुनि को यथासमय परिमित एवं निर्दोष भाषा बोलना चाहिये ।
१६७ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ३५२ - ५६ । - डॉ. सागरमल जैन ।
उत्तराध्ययनसूत्र २४ / २, ४ एवं ५ ।
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