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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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३. एषणासमिति
.एषणा शब्द का अर्थ है खोज या गवेषणा। इसका सामान्य अर्थ चाह या आवश्यकता भी होता है। मुनि का अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आहार, स्थान आदि की याचना में विवेक रखना एषणासमिति है। मुनि को निर्दोष भिक्षा एवं आवश्यकतानुसार वस्तुएँ स्वीकार करनी चाहिये। उत्तराध्ययनसूत्र में एषणा के तीन भेद उपलब्ध होते हैं। वे निम्न हैं :
१.गवेषणा - खोज की विधि २. ग्रहणेषणा - ग्रहण करने की विधि; और ३.परिभोगैषणा - आहार या भोजन का उपयोग करने की विधि । ये तीनों भेद मुनि के आहार, उपधि और शय्या के बताये गए हैं।
मुनिजीवन के अन्तर्गत आहारविशुद्धि हेतु अत्यन्त सतर्कता रखनी चाहिये। उसके निम्न दो कारण हैं :
१. मुनि का जीवन समाज पर भार न हो; और
२. मुनि के निमित्त से हिंसा न हो। __ जैसे भ्रमर फूल को बिना पीड़ा पहुँचाए पराग ग्रहण करता है, वैसे ही मुनि को मधुकरीवृत्ति से या गाय की तरह घूम-घूम कर दाता को बिना कष्ट पहुँचाए थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करना चाहिये। इस एषणासमिति का विशेषरूप से सम्बन्ध मुनि-जीवन की आहारचर्या में परिलक्षित होता है।
४. आदानभण्ड-निक्षेपणसमिति
मुनि प्रत्येक कार्य सावधानी पूर्वक करता है। किसी भी जीव की हिंसा न हो, इस हेतु वह प्रत्येक क्रिया प्रतिलेखन एवं प्रमार्जनपूर्वक करता है। इसे ही आदानभण्ड-निक्षेपणसमिति कहते हैं। आदान शब्द का अर्थ है - संयम के उपकरण, ज्ञानोपकरण आदि को उठाना या लेना तथा निक्षेप का अर्थ है रखना। यह कार्य सजगतापूर्वक करना चाहिये। वस्तु को सर्वप्रथम उपयोगपूर्वक देखकर और प्रमार्जित करके उपयोग में लेना चाहिये।
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उत्तराध्ययनसूत्र २४/१४ ।
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