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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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श्रमण सर्वोत्कृष्ट अन्तरात्मा होती है। वह सोलह कषायों से रहित
और क्षीणमोहपद (गुणस्थान) की धारक होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थानवर्ती) को जघन्य अन्तरात्मा कहा गया है। इन दोनों के मध्य रहे हुए सभी मध्यम अन्तरात्मा कहे जाते हैं। इस प्रकार प्रस्तुत विवेचन में गुणस्थानों के आधार पर अन्तरात्मा का त्रिविध विभाजन किया गया है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है। देशविरतसम्यग्दृष्टि नामक पंचम से लेकर उपशान्तमोह नामक ११वें गुणस्थान तक स्थित आत्माएँ मध्यम अन्तरात्मा कही गई हैं। बारहवें क्षीणमोह नामक गुणस्थान में स्थित आत्मा को सर्वोत्कृष्ट अन्तरात्मा कहा गया है।
जैन परम्परा में साधना का प्रवेशद्वार सम्यग्दर्शन है। साधना के क्षेत्र में में गतिमान साधक के दो प्रकार हैं - श्रमण एवं साधक। साधक का विभाजन चारित्र के आधार पर किया गया है। आत्मतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान एवं धर्म पर अविचल श्रद्धा रखना श्रमण और श्रावक दोनों के लिए अनिवार्य है। श्रावकाचार श्रावक के लिए आचार आगार धर्म तथा श्रमणाचार श्रमण के लिए आचार अनगार धर्म कहलाता है।
स्वरूप
४.३.१ अविरतसम्यग्दृष्टि तथा देशविरत श्रावक का
स्वरूप एवं लक्षण : (क) अविरतसम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा कैसे है? ____ अविरतसम्यग्दृष्टि उसे कहते हैं जिसका दृष्टिकोण तो सम्यक् होता है किन्तु आचार सम्यक् नहीं होता। उसके आगे लगा हुआ अविरत विशेषण इसी तथ्य को सूचित करता है कि वह सत्य को जानते हुए भी उसका आचरण नहीं कर सकता है। गुणस्थानों की अपेक्षा से अन्तरात्मा के इन उप-प्रकारों में सर्वप्रथम अविरतसम्यग्द ष्टि का क्रम आता है। अविरतसम्यग्दृष्टि को जघन्य अन्तरात्मा कहा गया है क्योंकि उसका दृष्टिकोण सम्यक् होते हुए भी आचार सम्यक् नहीं होता है। वह सत्य को जानते हुए उसे जी नहीं सकता है। आचार की अपेक्षा से वह अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय, उपशम या क्षयोपशम तो करता है, किन्तु अप्रत्याख्यानी आदि
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