________________
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
कषायों पर नियन्त्रण रखने में असमर्थ होता है । वह पाप प्रवृत्तियों से पूरी तरह ऊपर उठ नहीं पाता है । उसको अन्तरात्मा केवल इसीलिए कहा जाता है कि उसमें आत्माभिरुचि होती है। वह अपने आचार पक्ष की कमियों को अपनी आचार सम्बन्धी कमजोरी के रूप में ही देखता है । यही कारण है कि उसे जघन्य अन्तरात्मा कहा जाता है ।
२५२
अन्तरात्मा की इन चर्चाओं के प्रसंग में गुणस्थानों की अपेक्षा से भी विचार किया गया है। अविरतसम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा को जघन्य अन्तरात्मा और देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती तक की सभी आत्माओं को मध्यम अन्तरात्मा कहा गया है। इसी क्रम में क्षीणकषाय नामक १२वें गुणस्थानवर्ती आत्माओं को उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहा गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जघन्य अन्तरात्मा और उत्कृष्ट अन्तरात्मा में एक ही गुणस्थान होता है किन्तु मध्यम अन्तरात्मा में सात गुणस्थानों की सत्ता है । इस आधार पर हमें यह मानना होगा कि मध्यम अन्तरात्मा के भी अनेक उपविभाग हैं। यहाँ हम मध्यम अन्तरात्मा के तरतमता की दृष्टि से तीन भेद कर सकते हैं । इसमें अविरतसम्यग्दृष्टि को जघन्य - जघन्य अन्तरात्मा कह सकते हैं। देशविरत को जघन्य - मध्यम अन्तरात्मा और सर्वविरत को अन्तरात्मा कहा जा सकता है । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक श्रेणी आरोहण करनेवाली आत्मा को उत्कृष्ट - मध्यम और १२वें गुणस्थानवर्ती क्षीणकषाय को उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहा जा सकता है । यहाँ हम मध्यम अन्तरात्मा के इन तीन रूपों की संक्षेप में चर्चा करेंगे। वे इस प्रकार हैं :
मध्यम- मध्यम
१. जघन्य - मध्यम अन्तरात्मा;
२. मध्यम- मध्यम अन्तरात्मा; और
३. उत्कृष्ट - मध्यम अन्तरात्मा ।
(ख) जघन्य - मध्यम अन्तरात्मा : देशविरतसम्यग्दृष्टि
इसमें देशविरतसम्यग्दृष्टि पंचम गुणस्थानवर्ती आत्मा को जघन्य-मध्यम अन्तरात्मा कहा गया है । देशविरतसम्यग्दृष्टि उस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org