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प्रकार परमात्मपद को प्राप्त करती है, इसकी साधना-विधि का उल्लेख भी प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में किया गया है। साथ ही विशेषरूप से इस साधना में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्-चारित्र की साधना के साथ-साथ अनुप्रेक्षा, ध्यान आदि की साधना किस रूप में सम्पन्न होती है, इसकी चर्चा की गई है। अन्त में जैनदर्शन की इस त्रिविध आत्मा की तुलना आधुनिक मनोविज्ञान से भी की गई है। आधुनिक मनोविज्ञान में व्यक्तित्व की चर्चा के प्रारम्भ में अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्वों की चर्चा उपलब्ध होती है। जो किसी सीमा तक बहिरात्मा और अन्तरात्मा से तुलनीय है। इसी प्रकार उसमें (१) वासनात्मक अहम्; (२) विवेकात्मक अहम् और (३) आदर्शात्मक अहम् (Id, Ego & Super Ego) की चर्चा भी त्रिविध
आत्मा से समतुल्यता रखती है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में इस त्रिविध आत्मा की अवधारणा को आधुनिक मनोविज्ञान के सन्दर्भ में पूरी तरह समझने का प्रयत्न किया गया है।
यहाँ यह विचार कर लेना भी आवश्यक है कि त्रिविध आत्मा की अवधारणा की वर्तमान युग में क्या प्रासंगिकता है? वर्तमान युग विज्ञान का युग है। वैज्ञानिक गवेषणाओं के परिणामस्वरूप आज भौतिक सुख साधनों का अम्बार लग गया है। धरती पर चलने वाला मानव अब अन्तरिक्ष में यात्रा कर रहा है। दूरभाष, दूरदर्शन
और वायुयान आदि साधनों के परिणामस्वरूप दूरियाँ कम हो गई हैं, किन्तु इन सब के उपरान्त भी व्यक्ति की आकांक्षाएँ और तृष्णाएँ कम नहीं हो सकी हैं। विश्व की दूरियाँ चाहे कम हो गई हों, किन्तु हृदय की दूरियाँ बढ़ी हैं। विश्व बाह्य सुख-साधन और भौतिक सुख-सुविधाओं में आसक्त बना हुआ है। वह अपनी अन्तरात्मा की ओर अभिमुख नहीं है। वह पर-पदार्थों को जानने और भोगने में इतना तल्लीन हो गया है कि स्व (आत्मा) को लगभग विस्मृत ही कर चुका है।
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में हमारा प्रयत्न यही रहा है कि व्यक्ति अपनी इस बहिर्मुखता का त्यागकर अन्तर्मुखी बने और अपने परमात्मस्वरूप का अनुभव करे। आज विश्व का कल्याण इसी में निहित है कि वह बहिर्मुखता अर्थात् भोगोन्मुख दृष्टि का त्याग करे
और अन्तर्मुख होकर अपनी अस्मिता को जाने और जीने का प्रयत्न करे।
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