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________________ आठ प्रकार की आत्माओं की चर्चा के आधार पर उपनिषदों की बहिःप्रज्ञ एवं अन्तःप्रज्ञ की अवधारणा अथवा निद्रादि चार अवस्थाओं और पंचकोशों की अवधारणा से ही त्रिविध आत्मा की इस अवधारणा का विकास हुआ है। सर्वप्रथम हमें आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में त्रिविध आत्मा की अवधारणा मिलती है। आचार्य कुन्दकुन्द के काल को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। उन्हें विद्वानों ने ईसा की प्रथम शती से लेकर पाँचवीं शती तक के अलग-अलग कालखण्डों में माना है। उसके पश्चात् पूज्यपाद देवनन्दी के पाँचवीं-छठी शती के इष्टोपदेश और समाधितंत्र नामक संस्कृत ग्रन्थों में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। ___इसके पश्चात् मुनिरामसिंह एवं योगीन्दुदेव (लगभग ७वीं शती) के अपभ्रंश ग्रन्थ क्रमशः पाहुडदोहा एवं परमात्मप्रकाश में भी विविध आत्मा की चर्चा उपलब्ध है। इसी क्रम में आगे १०वीं शताब्दी में शुभचन्द्रजी के ज्ञानार्णव में यह अवधारणा मिलती है। लगता है कि श्वेताम्बर परम्परा में त्रिविध आत्मा की यह अवधारणा परवर्तीकाल में ही विकसित हुई है। सर्वप्रथम हेमचन्द्रजी ने इसका निर्देश किया है। उनके पश्चात् लगभग १७वीं शताब्दी में आचार्य यशोविजयजी ने त्रिविध आत्मा की इस अवधारणा का अपने ग्रन्थों में विस्तृत विवेचन किया है। उनके ही समकालीन अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी ने भी अपने पदों और चौवीसियों में त्रिविध आत्मा की चर्चा की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत ग्रन्थों से प्रारम्भ होकर प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और मरुगूर्जर आदि सभी भाषाओं और सभी कालों में जैन परम्परा में त्रिविध आत्मा की चर्चा उपलब्ध होती है। इस चर्चा में सामान्यतः मिथ्यादृष्टि को बहिरात्मा, सम्यग्दृष्टि, देशविरत एवं मुनि आदि को अन्तरात्मा और केवली या वीतराग को परमात्मा के रूप में वर्णित किया गया है। इस चर्चा में यह भी फलित होता है कि व्यक्ति अपनी साधना से किस प्रकार से बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा की अवस्था को प्राप्त करता है। जैनदर्शन की यह विशिष्टता है कि वह प्रत्येक आत्मा को परमात्मपद तक अपना आध्यात्मिक विकास करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। बहिरात्मा अपनी साधनात्मक यात्रा के माध्यम से अन्तरात्मा बनकर किस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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