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________________ भूमिका जैनदर्शन भारतीय श्रमण परम्परा का अंग है । श्रमण परम्परा में व्यक्ति के आध्यात्मिक और नैतिक विकास को अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। व्यक्ति वासनाओं से ऊपर उठकर निर्वाण या परमात्मस्वरूप को प्राप्त करे, यही श्रमण परम्परा का मुख्य लक्ष्य है। आध्यात्मिक विकास की यात्रा कहाँ से कैसे प्रारम्भ होकर कहाँ पूर्ण होती है, इसकी विवेचना ही श्रमण-धारा का मूल प्रतिपाद्य विषय रहा है I औपनिषदिक परम्परा से लेकर जैन और बौद्ध परम्पराओं में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की विविध अवस्थाओं की चर्चा उपलब्ध होती है । उपनिषदों में प्रेयमार्ग और श्रेयमार्ग की चर्चा के साथ ही दो प्रकार के व्यक्तियों के उल्लेख मिलते हैं बहिःप्रज्ञ और अन्तःप्रज्ञ । प्रकारान्तर से उपनिषदों में हमें आध्यात्मिक विकास की सुषुप्ति, स्वप्न, जागृति और तुरीय अवस्थाओं का उल्लेख भी प्राप्त होता है। एक अन्य अपेक्षा से उपनिषदों में पंचकोषों की चर्चा भी मिलती है, यथा ३. मनोमयकोश; ४. विज्ञानमयकोश और ५. अन्नमयकोश । - १. आनन्दमयकोश; २. प्राणमयकोश; * ये सब अवस्थाएँ व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की सूचक हैं I इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के अन्तर्गत भी स्रोतापन्नादि चार अवस्थाओं तथा दस भूमियों की चर्चा हमें मिलती है। जैन परम्परा में भी आध्यात्मिक और नैतिक विकास की दृष्टि से षड्लेश्याओं, कर्मविशुद्धि के दस स्थानों, चौदह गुणस्थानों और त्रिविध आत्माओं की चर्चा उपलब्ध होती है । चौदह गुणस्थानों और षड्लेश्याओं को लेकर जैनविधा के क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से कुछ शोध कार्य हुए हैं, किन्तु त्रिविध आत्मा की अवधारणा की चर्चा आगमयुग के पश्चात् लगभग पाँचवीं शताब्दी से उपलब्ध होने लगती है । आगमकाल में भगवतीसूत्र में आठ प्रकार की आत्माओं का उल्लेख है । हमें ऐसा लगता है कि इन Jain Education International i For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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