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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारण
परम्परा में जितनी लोकप्रिय रही उतनी श्वेताम्बर परम्परा में नहीं रही। इस अवधारणा के विकास का श्रेय दिगम्बर परम्परा के मूर्धन्य आचार्य कुन्दकुन्द को जाता है। ___ अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि इन दिगम्बर श्वेताम्बर आचार्यों एवं विद्वानों ने किस रूप में त्रिविध आत्मा की अवधारणा का उल्लेख किया है।
२.४.२ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में त्रिविध आत्मा की
__ अवधारणा (क) मोक्षप्राभृत में त्रिविध आत्मा
जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है आचार्य कुन्दकुन्द ने सर्वप्रथम मोक्षप्राभृत में तीन प्रकार की आत्माओं का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि आत्मा परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा के भेद से तीन प्रकार की है। इन्द्रियाँ बहिरात्मा हैं, आत्मसंकल्प अन्तरात्मा है और कर्म-कलंक से रहित आत्मा परमात्मा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन्द्रियों को ही बहिरात्मा कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि ऐन्द्रिक विषयों में अनुरक्त आत्मा ही बहिरात्मा है। आत्मसंकल्प को अन्तरात्मा कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मोन्मुख आत्मा ही अन्तरात्मा है। दूसरे शब्दों में इन्द्रियोन्मुख बहिरात्मा है और आत्मोन्मुख अन्तरात्मा है। उन्होंने परमात्मा को कर्म-कलंक से रहित बताया है। जब आत्मा कर्ममल से रहित हो जाती है, तो वह परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार वे इन तीन विशिष्ट लक्षणों के आधार पर त्रिविध आत्मा का विवेचन प्रस्तुत करते हैं। (ख) नियमसार में त्रिविध आत्मा
आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार के निश्चयपरमावश्यकाधिकार की अलग-अलग गाथाओं में भी बहिरात्मा, अन्तरात्मा और
४५ 'अक्खाणि बाहिरप्पा अन्तरअप्पा हु अप्पसंकप्पो ।
कम्म-कलंक विमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ।। ५ ।।' 'मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा । परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो ।। ६ ।।'
--मोक्षपाहुड ।
-वही ।
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