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________________ औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ १५३ परमात्मा के स्वरूप का विवेचन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि जो श्रमण आवश्यककर्म से रहित हो, वह बहिरात्मा कहलाता है और जो श्रमण परमावश्यककर्म से निरन्तर संयुक्त हो अर्थात् अनुपचार से रत्नत्रयात्मक स्वात्मआचरण में पूर्णतः सजग हो या नियम में विद्यमान हो उसे अन्तरात्मा कहा गया है। नियमसार के टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव ने यहाँ अन्तरात्मा के निम्न तीन भेद स्वीकार किये हैं - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जो क्षीणमोह पद को प्राप्त परम श्रमण है; वह सर्वोत्कृष्ट अन्तरात्मा है। जो आत्मा अप्रत्याख्यानी कषायों से सहित है, वह असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा कहलाती है। इन दोनों के मध्य की अवस्था को मध्यम अन्तरात्मा कहा गया है। टीकाकार ने निश्चय और व्यवहार नय की अपेक्षा से यह बताया है कि जो आत्मा परमावश्यकक्रिया से रहित हो वह बहिरात्मा है। कुन्दकुन्दाचार्य आगे लिखते हैं कि जो आत्मा अन्तर्बाह्य जल्प में वर्तती हो एवं धर्मध्यान और शुक्लध्यान से विहीन हो वह बहिरात्मा है। जो आत्मा इन अन्तर्बाह्य जल्प में निमग्न नहीं होती है धर्म और शुक्लध्यानामृतरूपी समरसता से युक्त होती है, वह अन्तरात्मा कहलाती है। जो निजस्वरूप या परमवीतरागदशा में स्थित हो वह परमात्मा है। २.४.३ स्वामी कार्तिकेय की कार्तिकेयानुप्रेक्षा - आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् त्रिविध आत्मा का उल्लेख करनेवाला यदि कोई ग्रन्थ है, तो वह स्वामी कार्तिकेय की कार्तिकेयानप्रेक्षा है। स्वामी कार्तिकेय ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा क्रमांक १६२ में कहा है कि जीव तीन प्रकार के होते हैं : ४७ (क) 'आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अन्तरंगप्पा । आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ।। १४६ ।।' (ख) 'अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा । जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा ।। १५० ।।' -नियमसार । (ग) नियमसार गा. १५१, १५२ एवं १७८ ।। ४८ 'जीवाहवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अन्तरप्पा य । परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ।। १६२ ।।' -स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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