SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा इनमें अन्नमयकोश जीव की वह अवस्था है जिसमें वह शरीर को ही सब कुछ मानकर जीवन जीता है। दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति उसका लक्ष्य होता है। इसके पश्चात् प्राणमयकोश की स्थिति आती है। इसमें आत्मा ऐन्द्रिक एवं जैविक शक्तियों को ही महत्त्व देती है। उसके लिए प्राणशक्ति ही प्रमुख होती है। जैनदर्शन में दशप्राणों की चर्चा उपलब्ध होती है। वे निम्न हैं : (१) स्पर्शेन्द्रिय; (२) रसनेन्द्रिय; (३) घ्राणेन्द्रिय; (४) चक्षुरिन्द्रिय; (५) श्रोत्रेन्द्रिय; (६) आयुष्य; (७) श्वासोच्छवास; (८) मनोबल; (E) वचनबल; और (१०) कायबल प्राण। वस्तुतः प्राणमयकोश में स्थित आत्मा प्राणशक्ति को सर्वस्व मानकर जीवन जीता है। प्राणमयकोश का अतिक्रमण करके आत्मा मनोमयकोश को प्राप्त करती है। इस स्तर पर आत्मा मन के अधीन रहकर जीती है। मनोमयकोश में मन की प्रधानता होती है। अन्नमयकोश, प्राणमयकोश और मनोमयकोश - ये तीनों ही वस्तुतः बहिरात्मा के ही परिचायक हैं। मनोमयकोश के ऊपर विज्ञानमयकोश है। मनोमयकोश वासनात्मक जीवन का परिचायक है; जबकि विज्ञानमयकोश विवेकात्मक जीवन का परिचायक है। इस स्तर पर आत्मा विवेकपूर्वक जीवन जीती है। विज्ञानमयकोश की तुलना हम अन्तरात्मा से कर सकते हैं। विज्ञानमयकोश के पश्चात् आनन्दमयकोश का स्थान है। विज्ञानमयकोश तक विकल्प उपस्थित रहते हैं, किन्तु आनन्दमयकोश में आत्मा समस्त विकल्पों का अतिक्रमण करके निर्विकल्प आत्मानन्द की अनुभूति करती है। जैनदर्शन में इसे परमात्मा कहा गया है। जैनदर्शन के अनुसार भी परमात्मा को अनन्त सुखों में लीन माना जाता है। यह आत्मा की सर्वोच्च स्थिति है। इस प्रकार हम देखते हैं कि चाहे उपनिषदों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूप में स्पष्टतः त्रिविध आत्माओं का उल्लेख न हुआ हो, किन्तु हम उपनिषदों में वर्णित आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं का किसी भी रूप से विवेचन करें तो उनके मूल में कहीं न कहीं आत्मा की ये त्रिविध अवस्थाएँ रही हुई हैं। वस्तुतः चाहे हम माण्डूक्योपनिषद् के आधार पर बहिःप्रज्ञ और अन्तःप्रज्ञ तथा अवाच्य स्थिति को मानें, चाहे हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy