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________________ औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ छान्दोग्योपनिषद् के आधार पर शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा के त्रिविध वर्गीकरण को स्वीकार करें या तैत्तिरीयोपनिषद् के आधार पर अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनन्दमयकोश ऐसी पांच अवस्थाओं को स्वीकार करें; सिद्धान्ततः वे जैनदर्शन में वर्णित आत्मा की त्रिविध अवस्थाओं से भिन्न नहीं हैं । - पंचकोश : उपनिषदों में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की अपेक्षा से पंचकोशों की चर्चा उपलब्ध होती है। पंचकोश निम्नांकित हैं : (१) अन्नमयकोश; २) प्राणमयकोश; (३) मनोमयकोश; (५) आनन्दमयकोश । (४) विज्ञानमयकोश और ७ यहाँ कोश से तात्पर्य चेतना या आत्मा की जीवनदृष्टि से है । (१) अन्नमयकोश : जब तक चेतना या जीवन-ऊर्जा देहभाव तक ही सीमित रहती है, उसे अन्नमयकोश कहते हैं । अन्नमयकोश की जीवनदृष्टि देहात्मभाव की अवस्था है । उसके लिए यह स्थूल शरीर ही महत्त्वपूर्ण होता है । वह दैहिक स्तर पर जीवन जीता है। अन्नमयकोश दैहिकसत्ता या दैहिकशक्ति का सूचक है । (२) प्राणमयकोश : अन्नमयकोश के ऊपर प्राणमयकोश की स्थिति है। प्राणमयकोश जीवनशक्ति का सूचक है । इस अवस्था में व्यक्ति ऐन्द्रिक अनुभूतियों और संवेदनाओं के स्तर पर ही जीता है। जैन- परम्परा में पांचों इन्द्रियों, मन, वचन, शरीर, आयुष्य और श्वसनशक्ति को ही प्राण कहा गया है । यहाँ प्राण शब्द जीवनदायिनी शक्ति का ही सूचक है । हमारे शरीर और इन्द्रियों में जो कार्यशक्ति उपस्थित है, वही प्राणमयकोश है। शरीर और इन्द्रियों की जैविक शक्ति प्राण है। प्राण मात्र श्वसन, इन्द्रियाँ या मन नहीं है । वस्तुतः इन सबके भीतर जो कार्य सामर्थ्य रही हुई है वही प्राण है । संक्षेप में कहें तो प्राण I ‘एतमन्नमयमात्मानमुपसंक्रम्य । एतं प्राणमयमात्मानमुपसंक्रम्या एतं मनोमयमात्मानमुपसंक्रम्य । एतं विज्ञानमयामात्मानमुपसंक्रम्य । एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रम्य ।' Jain Education International १३१ - तैत्तिरीयोपनिशद्, भृगुवल्ली, ३/१०/६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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