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________________ विषय प्रवेश करे । ४८४ साधक को बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिये । इस सम्बन्ध में अग्रिम अध्यायों में हम विस्तार से चर्चा करेंगे । १.११.२ आगम साहित्य और त्रिविध आत्मा की अवधारणाएँ (क) आचारांग और त्रिविध आत्मा परवर्ती जैनाचार्यों ने आत्मविकास की दृष्टि से आत्मा की तीन अवस्थाओं का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है और आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा के निम्न तीन भेद स्वीकार किये हैं : (१) बहिरात्मा; (२) अन्तरात्मा; और (३) परमात्मा । किन्तु अर्द्धमागधी और शौरसेनी आगमों में हमें इस प्रकार का कोई वर्गीकरण उपलब्ध नहीं होता है । ४८५ १२१ -४८५ जैन साहित्य में आत्मा के इन तीन प्रकारों का उल्लेख सर्वप्रथम मोक्षप्राभृत (मोक्खपाहुड) में आचार्य कुन्दकुन्द ने किया है। आचारांगसूत्र जैसे प्राचीन आगम में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा जैसे शब्दों का प्रयोग स्पष्ट रूप से नहीं हुआ है । फिर भी इन तीन प्रकार की आत्माओं के लक्षणों का विवेचन उसमें भी उपलब्ध हो जाता है । आचारांगसूत्र में बहिर्मुखी आत्मा को बाल, मन्द और मूढ़ के नाम से अभिहित किया गया है। ये आत्माएँ ममत्व से युक्त होती हैं एवं बाह्य विषय-विकारों में अनुरक्त होती ४८४ ‘अनं इमं सरीरं, अन्नो जीवुत्ति एवं कय बुद्धि । दुःख - परिकिलेस करं, छिदं ममता सरीराओ ।। १५४७ ।।' मक्खपाहु ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only - आवश्यकनियुक्ति । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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