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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
हैं।८६ अन्तर्मुखी आत्मा को पण्डित, मेघावी, धीर, समत्वदर्शी और अनन्यदर्शी के नाम से चित्रित किया गया है। अनन्यदर्शी शब्द उसकी अन्तर्मुखता को स्पष्ट कर देता है। आचारांगसूत्र में अन्तरात्मा के लिए मुनि शब्द का भी प्रयोग हुआ है।
आचारांगसूत्र के अनुसार जिन लोगों ने संसार के स्वरूप को जानकर बाह्यप्रवृत्ति (लोकेषणा) का त्याग कर दिया है, जो सम्यग्दर्शी (पापविरत) हैं, वे अन्तरात्मा हैं। इसी प्रकार आचारांगसूत्र में परमात्मा या मुक्तात्मा का विवेचन भी उपलब्ध है। इसे विमुक्त पारगामी एवं तर्क और वाणी से अगम्य बताया गया है।४८८
(ख) भगवतीसूत्र की अष्टविध आत्मा की अवधारणा से
त्रिविध आत्मा की अवधारणा की तुलना भगवतीसूत्र ८६ में वर्णित अष्टविध आत्माओं का त्रिविध आत्मा की अवधारणा से सम्बन्ध देखने पर यह ज्ञात होता है कि द्रव्यात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा - इन छ: प्रकार की आत्माओं की सत्ता सिद्धपरमात्मा में मानी जा सकती है; क्योंकि आत्मद्रव्य और उसका उपयोग लक्षण तो परमात्मा में भी है ही। इसके अतिरिक्त सिद्धपरमात्मा में अनन्तचतुष्टय अर्थात् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य की सत्ता भी स्वीकार की गई है। इनमें अनन्तज्ञान का
४८६ आचारांगसूत्र ५/८, १०, ११ । ४८७ वही ५/६ । ४८८ वही ५/६, १२ । ४८६ (क) भगवतीसूत्र १२/१०/४६७ । (ख) 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. २३० ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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