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________________ १२० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा पं. सुखलालजी के अनुसार आत्मा की ये तीन अवस्थाएँ निम्न प्रकार से हैं : (१) आध्यात्मिक अविकास की अवस्था; (२) आध्यात्मिक विकास की अवस्था; और (३) आध्यात्मिक पूर्णता अर्थात् मोक्ष की अवस्था। आचारांगसूत्र में भी त्रिविध आत्मा के लक्षणों की विवेचना की गई है।८२ जैनदर्शन में इन त्रिविध अवस्थाओं के स्वरूप लक्षण आदि की विस्तृत चर्चा की गई है। विशेषावश्यकभाष्य में इन त्रिविध अवस्थाओं का सोदाहरण विवेचन उपलब्ध होता है। साथ ही यह भी बताया गया है कि बहिरात्मा से अन्तरात्मा तक कैसे पहुंचा जा सकता है? दोनों में क्या अन्तर है? परमात्मा बनने का उपाय क्या है आदि प्रश्नों का विस्तृत विवेचन मिलता है। आत्मा की वह कौनसी स्थितियाँ हैं, जो साधक को परमात्मदशा तक पहुँचने में बाधक या साधक हैं? आत्मा को परमात्मा बनने में सबसे बड़ा अवरोधक तत्त्व उसकी विषयोन्मुखता या बहिर्मुखता है। विषय-विकार तथा राग-द्वेषजन्य विभावदशा में निमग्न आत्मा बहिर्मुखी होती है। उसकी विषयासक्ति उसे परमात्मा तो क्या अन्तरात्मा भी नहीं बनने देती है। बहिर्मुखी आत्मा परमात्मदशा से विमुख रहती है। अतः जैनदर्शन का सन्देश है कि साधक बहिर्मुखता को त्यागकर अन्तरात्मा अर्थात् आत्माभिमुख बने। आत्माभिमुख साधक ही अन्त में परमात्मा बन सकता है। बहिरात्मा से अन्तरात्मदशा की ओर अभिमुख होने का सर्वप्रथम लक्षण है - आत्मा और शरीर का भेदज्ञान अर्थात् यह शरीर अन्य है, आत्मा अन्य है। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि साधक अपनी तत्त्वबुद्धि के द्वारा दुःख एवं क्लेशजनक शरीर की ममता का त्याग ४८१ (क) 'जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ४४७-४८ - 'दर्शन और चिन्तन' पृ. २७६-२७७; - 'जैनधर्म' पृ. १४७ -डॉ. सागरमल जैन । (ख) मोक्षपाहुड ५/६/१२ । न्ध अध्ययन ३-५ । ४८३ विशेषावश्यकभाष्य गा. १२११-१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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