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* अन्तराशीष
परम विदुषी प्रतिभा सम्पन्न छोटी बहना प्रियलताश्री आधुनिक युग की एक सौम्य और प्रबुद्ध विचारिका ने आपने शोध प्रबन्ध 'जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा' का गम्भीर अध्ययन किया है। हिन्दी में लिखा हुआ ग्रंथ विद्वत् योग्य तो है ही, साथ ही जैन दर्शन के अन्य जिज्ञासुओं के लिए भी उपकारक सिद्ध होगा। इस ग्रंथ की गुरु- गम्भीर रहस्यों को इसमें उजागर किया गया है। भाव, भाषा, शैली सभी दृष्टियों से ग्रन्थ सरस और चित्ताकर्षक बना है। आशा है श्रद्धालु गण इस ग्रन्थ का स्वाध्याय कर अपने जीवन को नया मोड़ देंगे। उनमें स्वाध्याय की रूचि जागृत होगी और वे अधिकाधिक अन्तर्मुखी बनेंगे ।
आप युग-युग तक शासन सेवा करें मैं देव गुरु से प्रार्थना करती हूँ। आपकी लिखि कृति जन-जन के लिए प्रेरणा रूप बने, साहित्य के द्वारा दिन-दुनी रात चौगुनी सेवा करके स्वयं पर कल्याण की साधना करें यही अन्तर शुभाशीष । आप स्वयं इस ग्रंथ को हृदयंगम करके अपनी आत्मा का अवलोकन करें । इस ग्रन्थ को बोधगम्य एवं सर्वाङ्गपूर्ण बनाने में डॉ. सागरमलजी जैन का महत्वपूर्ण योगदान रहा। शोध प्रबंध में कठिन विषय को भी सहज एवं सरल रूप में ग्रन्थ के माध्यम से महनीय कार्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। स्वाध्याय प्रेमी डॉ. ज्ञानचंदजी व कम्पोजिंग में श्री नवीनचन्द्रजी सावनसुखा का हार्दिक सहयोग कभी भी भुलाया नहीं
जा सकता।
यह ग्रंथ आत्मा का दर्पण बने, सम्यग्दर्शन से आत्मा दीप्तिमान बने । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की अवधारना करके मुक्ति रमणी को वरण करें।
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साध्वी सुलोचनाश्री
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