SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय प्रवेश ११३ जाता है लेकिन पूर्व में बन्धे हुए सत्तारूप कर्मों के जल को जो आत्मरूपी तालाब का शेष जल है, उसे सुखाना ही निर्जरा है। ३. निर्जरा के भेद : कर्मों की निर्जरा दो प्रकार से होती है : (१) सविपाक निर्जरा; और (२) अविपाक निर्जरा। जिस प्रकार कच्चे आम आदि को कृत्रिम ताप से पका लिया जाता है; उसी प्रकार समय से पहले तप के द्वारा कर्मों को आत्मा से अलग कर देना अविपाक निर्जरा कहलाती है और यह मोक्ष का कारण है। कर्मों का यथासमय उदय में आकर और अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाना या निर्जरित हो जाना सविपाक निर्जरा निर्जरा के द्रव्यनिर्जरा और भावनिर्जरा ऐसे दो भेद किये जाते हैं। कर्मपुद्गलों का आत्मा से अलग होना द्रव्यनिर्जरा है और जिनसे कर्मनिर्जरा होती है, वैसे आत्मपरिणाम भावनिर्जरा है। भावनिर्जरा के माध्यम से द्रव्यनिर्जरा होकर कर्मों का पूर्णतः क्षय होता है और उसके द्वारा आत्मा मुक्ति को प्राप्त करती है। १.१० आध्यामिक विकास की विभिन्न अवधारणाएँ बन्धन से मुक्ति तक की आध्यात्मिक विकास की इस यात्रा के विभिन्न चरण माने गये हैं। त्रिविध आत्मा की अवधारणा भी मूलतः व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की सूचक है। बहिरात्मा से परमात्मा तक की यात्रा आध्यात्मिक विकास के माध्यम से ही सम्भव होती है। आध्यात्मिक विकास की इस यात्रा को सूचित करने के लिए जैनधर्म में षड्लेश्या, कर्मविशुद्धि की दस अवस्थाओं (गुणश्रेणियों) और चौदह गुणस्थानों की अवधारणाएँ उत्तराध्ययनसूत्र,५ ४५७ सर्वार्थसिद्धि ८/२३ पृ. ३६६ । ४५६ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/४, १०, १६, १८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy