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________________ ११२ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा देवनन्दी, अकलंकदेव आदि के ग्रन्थों में आभ्यन्तर तप की अनेक विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं। आभ्यंतर तप विशुद्धि की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है । इसके छः भेद इस प्रकार हैं - ४५५ ४५६ (१) प्रायश्चित; (४) स्वाध्याय; २. निर्जरा ही मोक्ष का कारण तप साधना का मुख्य प्रयोजन पूर्व संचित कर्मों का क्षय करना है। वे निर्जरा के हेतु हैं और निर्जरा ही मोक्ष का साक्षात् कारण है । (२) विनय; (५) व्युत्सर्ग; और निर्जरा शब्द का अर्थ है जर्जरित कर देना । खर जाना या आत्मतत्त्व से कर्म पुद्गलों का पृथक् हो जाना निर्जरा है। आत्मा के साथ कर्म - पुद्गलों का सम्बन्ध होना बन्ध है; नवीन पुद्गलों का आत्मा की ओर आगमन रोकना संवर है और आत्मा से पूर्वबद्ध कर्मवर्गणाओं का अलग होना निर्जरा है । मात्र संवर से निर्वाण की प्राप्ति सम्भव नहीं है । आत्मा के साथ पुराने कर्मों का क्षय होना भी उसी प्रकार जरूरी है जिस प्रकार छिद्रयुक्त नौका के छेद बन्द कर देने के बाद उसमें भरे हुए जल को उलीचकर बाहर फेंक देना अनिवार्य होता है । पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय को ही जैनागमों में निर्जरा कहा गया है उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है कि किसी बड़े तालाब के जल स्त्रोतों (पानी के आगमन द्वारों) को बन्द कर देने के पश्चात् उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचने या ताप से सुखाने पर वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जाता है । यहाँ आत्मा ही सरोवर है, कर्म पानी है और कर्मों का आस्रव ही पानी का आगमन है । उस पानी के आगमन के द्वारों को बन्द कर देना संवर है और उस पानी को उलीचकर बाहर फेंकना या सुखाना निर्जरा है । संवर से नये कर्मरूपी जल का आस्रव या आगमन रुक ४५५ ४५६ I 'पुव्वकदम्म सडणं तु निज्जरा' उत्तराध्ययनसूत्र ३० / ५ एवं ६ | Jain Education International (३) वैयावृत्य; (६) ध्यान । - भगवती आराधना गा. १८४७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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