________________
विषय प्रवेश
(७) तप : “ इच्छा निरोधो तपः”
.४४८
.४४६
इच्छाओं का निरोध तप ही है । तप से पुराने कर्मों की निर्जरा होती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने तप का स्वभाव बताते हुए कहा है कि विषय और कषायों से ऊपर उठने का चिन्तन करना तथा ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा अन्तरंग भावों का निरीक्षण करना अर्थात् शुद्ध स्वरूप में रमण करना ही तप है । ४५० सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में कहा गया है कि शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल कायक्लेश आदि कष्टों को सहना तप है । तप के मुख्यतः २ भेद
४५१
है
इसके ६ प्रकार हैं (१) अनशन; (३) वृत्तिपरिसंख्यान; (५) विविक्तशय्यासन; और
(१) बाह्य; और
(१) जो तप बाह्य पदार्थों के आलम्बन से किये जाते हैं और जो बाह्यतः कायक्लेश के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं, उन्हें बाह्य तप कहते हैं ।४५३
४५४
४४८ ‘इच्छानिरोधस्तपः’
४४६
'तपसा निर्जरा च '
(२) आभ्यन्तर ।
(क) सर्वार्थसिद्धि ६/२४;
(ख) तत्त्वार्थवार्तिक ६ / २४/७ ।
४५३ ‘बाह्यद्रव्यापेक्षात्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् ।'
(२) आभ्यन्तरः जो बाहर से कायक्लेश रूप प्रतीत नहीं होता है; किन्तु आत्म विशुद्धि का कारण है; उसे आभ्यन्तर अर्थात् आन्तरिक तप कहा जाता है । आचार्य पूज्यपाद
(क) सर्वार्थसिद्धि ६/१६ पृ. ३३६; (ख) तत्त्वार्थवार्तिक ६/१६/१७ । ४५४ तत्त्वार्थसूत्र ६/१६ ।
४५२
४५० तत्त्वार्थसूत्र ६ / १८ और भी द्रष्टव्य चारित्रभक्ति, गा. ३.४ ।
४५१
बारस अणुवेक्खा गा. ७७ ।
४५२ 'अनिगूहितवीर्यस्य मार्ग विरोधिकायक्लेशस्तपः ।'
Jain Education International
१११
(२) अवमौदर्य (उणोदरी); (४) रसपरित्याग; (६) कायक्लेश ।
- धवला, पु. १३ खं. ५ . भाग ४ सूत्र २६ । - तत्त्वार्थसूत्र ६/३ ।
For Private & Personal Use Only
- तत्त्वार्थसार ६/७ ।
www.jainelibrary.org