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________________ १०० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा (४) कषाय; और (५) योग।३६४ समवायांग में ही अन्यत्र कषाय और योग को कर्मबन्ध का कारण कहा गया है।३६५ योग से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होता है तथा कषाय से स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है।३६६ गोम्मटसार (कर्मकाण्ड)३६७, द्रव्यसंग्रह६८ आदि में भी यही कहा गया है। (१) मिथ्यात्व : वीतराग द्वारा बताये गये तत्त्वों पर श्रद्धा न होना अथवा विपरीत तत्त्वश्रद्धा का होना ही मिथ्यात्व है।३६६ भगवतीआराधना'०० एवं सर्वार्थसिद्धि:०१ में कहा गया है कि जीवादि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है। कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास की दृष्टि से यह तीन प्रकार का होता है।०२ (२) अविरति : विरति का अभाव अविरति है।०३ सर्वार्थसिद्धिकार ने विरति का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरत होना विरति है और इनसे विरत नहीं होना अविरति है। चारित्र-मोह के कारण अविरति का उदय होता है, तब व्रतों के विपरीत आचरण होता है। व्रतों का पालन नहीं करना ही अव्रत है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि हिंसादिक पाँच पापों का त्याग नहीं होना ही अविरति (अव्रत) है। ब्रह्मदेव ने भी कहा है कि -सर्वार्थसिद्धि ८/३ । ३६४ (क) उद्धृत 'जैनदर्शनः स्वरूप और विश्लेषण' पृ. ४३२ । (ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/१ । २६५ समवायांग २। ३६६ 'जोगा पयडि-पएसा ठिदिअनुभागा कसायदो कुणदि ।' ३६७ गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गाथा २५७ । ३६८ ‘पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेसभेदा दु चदुविधे वंधो ___जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति ।' ३८६ वही, गा. ४२, पृ. ७६ । ४०० भगवतीआराधना, गा. ५६ । ४०१ (क) सवार्थसिद्धि २/६; (ख) नयचक्र, गा. ३०३ । ४०२ सर्वार्थसिद्धि १/३२ । ४०३ वही ८/१। ४०४ सर्वार्थसिद्धि ७/१। -द्रव्यसंग्रह गा. ३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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