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विषय प्रवेश
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अन्तरंग में अपने परमात्मवरूप की भावना एवं परमसुखामृत में उत्पन्न प्रीति के विपरीत बाह्य विषयों में रुचि एवं व्रत आदि का पालन न करना अविरति है।०५ बारसअणुवेक्खा में भी
अविरति के उपरोक्त पाँच भेदों का उल्लेख मिलता है। (३) प्रमाद : आलस्य अथवा कार्य के प्रति सजगता का अभाव ही
प्रमाद है। दूसरे शब्दों में अध्यात्म के प्रति अनुत्साह होना ही प्रमाद है। मोहनीयकर्म के कारण प्रमाद होता है और प्रमाद के कारण जीव ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में आलस्य करता है। आचार्य पूज्यपाद०६, अकलंकदेव०७ आदि ने कषाययुक्त अवस्था में शुभ कार्यों में आलस्य रखने को ही प्रमाद कहा है। वीरसेन ०८ ने चारों संज्वलन कषायों और हास्य आदि उप-नोकषायों के तीव्र उदय को भी प्रमाद कहा है। कषाय : आत्मा के वे कलुषित मनोभाव हैं, जो कर्मों के संश्लेष के कारण होते हैं। वे कषाय कहे जाते हैं।०६ ये भाव आत्मा के शुद्ध स्वरूप को कलुषित करते हैं। इसी कारण से क्रोधादि कलुषित भावों को कषाय कहा जाता है। कषाय सम्यक्चारित्र की उपलब्धि में बाधक हैं। संक्षेप में मोहकर्म के उदय से होने वाले जीव के क्रोध, मान, माया और लोभरूप परिणाम ही
कषाय कहलाते हैं। (५) योग : जैनदर्शन में मन, वचन और काय के द्वारा होने वाले
आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन को योग कहा गया है। इन्हीं कारणों के कारण कर्मों का आत्मा के साथ संयोग होता है।१० योग का एक अर्थ प्रवृत्ति भी है। इसे परिभाषित करते हुए कहा गया है कि
'कायवाङ्मनो व्यापारो योगः"४११ अर्थात् शरीर वाणी एवं मन के व्यापार को योग कहा गया है।
-सर्वार्थसिद्धि ७/१३;
-वही ८/१।
४०५ द्रव्यसंग्रह टीका, गा. ३० पृ. ७८ । ४०६ बारस अणुपेक्खा , गा. ४८ । ४०७ (क) 'प्रमादः सकषायत्वं,'
(ख) 'स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः ।' ४०८ धवला, पु. ७ खं. २, भाग १, सूत्र ७ । ४०६ (क) सर्वार्थसिद्धि ६/४ पृ. ३२०;
(ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ६/४/२ । ४१० सर्वार्थसिद्धि २/२६ । ४११ तत्त्वार्थसूत्र ६/१ ।
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