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________________ विषय प्रवेश ६६ ४. जैनदर्शन में कर्मबन्ध के कारण ___ जैन दार्शनिकों ने कर्मबन्ध के कारणों की संख्या एक से लेकर पाँच तक बताई है।८८ प्रज्ञापनासूत्र में भगवान् महावीर ने गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा है कि ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरणीयकर्म का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरणीयकर्म के तीव्रोदय से दर्शन-मोहनीय कर्म का तीव्र उदय होता है और दर्शनमोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का तीव्र उदय होता है। मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ प्रकार के कर्म बाँधता है।३८६ _वैदिकदर्शनों की तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने भी अज्ञान को बन्ध का प्रमुख कारण माना है। किन्तु समयसार में एक अन्य स्थल पर उन्होंने राग, द्वेष और मोह को बन्ध का वास्तविक कारण बताया है। पुनः इसी ग्रन्थ में एक स्थल पर उन्होंने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - इन चार को कर्मबन्ध का कारण माना है।२६० आचार्य नेमिचन्द ने गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) में भी मिथ्यात्ववादि इन्हीं चारों को कर्मबन्ध का कारण माना है।३६१ मूलाचार में वट्टकेर ने इन्हीं मिथ्यात्वादि चार कारणों को बन्ध का हेतु माना है।६२ रामसेन ने तत्त्वानुशासन में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र को बन्ध का कारण माना है।२८३ स्थानांगसूत्र, समवायांग एवं कर्मानव में कर्मबन्ध के पाँच कारण माने गये हैं : (१) मिथ्यात्व; (२) अविरति; (३) प्रमाद; ३८८ (क) समयसार गा. २५६ और १५३; (ख) वही आत्मख्याति टीका गा. १५३ । २८६ उद्धृत 'जैनदर्शन, मनन और मीमांसा' पृ. २८३ । ३६० (क) समयसार गा. २३७ एवं २४१; ___(ख) वही गा. १०६ एवं १७७ । ३६१ गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. ७८६ । ३६२ "मिच्छादसणं अविरदि कसाय जोगा हवंति बंधस्स । आउसज्झवसाणं हेदवो ते दु णायव्वा ।। ६ ।।' ३६३ 'स्युर्मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि समासतः । बन्धस्य हेतवोऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ।। ८ ।।' -मूलाचार २ । -तत्त्वानुशासन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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