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________________ ६८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा कारण हैं। आचार्य नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रह ८० में कहते हैं कि चेतन के जिन परिणामों से कर्मबन्ध होता है, वे ही भावबन्ध कहलाते हैं। द्रव्यसंग्रह की टीका में ब्रह्मदेव लिखते हैं कि मिथ्यात्ववादि परिणामों के कारण जो ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं; उन्हें ही भावबन्ध कहा गया है।३८१ कर्मानव३८२ में बन्ध के यही ४ भेद बतलाए गये हैं। ३. जैनेतर (अन्य) दर्शनों में बन्ध के कारण ___आत्मा कर्मों से क्यों बँधता है? बन्ध के कारण क्या हैं? ये प्रश्न दार्शनिकक्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। वैदिक दार्शनिकों ने अज्ञान या मिथ्याज्ञान को ही बन्ध का कारण माना है। न्यायसत्र३८३ में गौतमऋषि ने मिथ्याज्ञान को समस्त दुःखों का कारण माना है। मिथ्याज्ञान ही मोह है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, वेदनादि के अनात्म होने पर भी उनके प्रति इनमें “मैं ही हूँ" या "ये मेरे हैं" - ऐसी बुद्धि रखना भी मिथ्याज्ञान या मोह है। ये कर्मबन्धन के कारण हैं। न्यायवैशेषिक:८४ दार्शनिकों का भी यही मन्तव्य है कि मिथ्याज्ञान ही बन्धन का मूल कारण है। सांख्यकारिका में भी प्रकृति और पुरुष विषयक विपर्ययज्ञान ही बन्ध का कारण माना गया है।३८५ योगदार्शनिकों ने क्लेश को बन्ध का कारण माना है।३८६ अद्वैत वेदान्तदर्शन में अविद्या को बन्ध का कारण माना गया है। -द्रव्यसंग्रह गा. ३२ । ३८० 'वज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो । ३८ द्रव्यसंग्रह टीका गा. ३२ पृ. ६१ । ३८२ तत्त्वार्थसूत्र ८/३ । २८२ (क) न्यायसूत्र १/१/२/ ४/१ १३-६; (ख) न्यायभाष्य ४/२/१ । २० प्रशस्तपादभाष्य, पृ. ५३८ । ३५ सांख्यकारिका, ४४, ४७ एवं ४८ । योगदर्शन २/३१४ । ३८७ 'भारतीय दर्शन', अद्वेतवेदान्त प्रकरण । -सम्पा. डॉ. न.कि. देवराज । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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