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________________ - २०] द्वितीयः स्तबकः ६ १९ ) तदनु किमत्र प्रथमं कर्तव्यमिति क्षणं चिन्ताकुलो वसुधापतिर्धर्मार्थकार्ययोर्मध्ये धर्मकार्यमेव मुख्यमिति निश्चित्य, भगवतो यशोधरगुरोः पूजां विधातुं पृतनयो सार्धमुपसृत्य जगद्गुरोः सुराञ्चितमपि असुराञ्चितं, वनोपकजनमनीषितपूरकमपि अवनीपकजनमनोषितपूरक, खरांशुकान्तमपि नखरांशुकान्तं पदयुगलं पूजयामास । २०) तत्पादौ प्रणमन्नसौ नरपतिलब्धावधिः शुद्धधीः स्वस्यैवाच्युतकल्पवासवपदं पुण्याजितं प्राग्भवे । उपजातिवृत्तम् ॥११॥ १९) तदन्विति-तदनु तदनन्तरम अत्र द्वयोः कार्ययोः प्रथमं किं कर्तव्यं करणीयमिति क्षणमल्पकालपर्यन्तं चिन्ताकुलो विचारव्यग्रो वसुधापतिर्वज्रदन्तः धर्मार्थकार्ययोर्मध्ये धर्मकार्यमेव मुख्यं प्रथमं करणीयमिति निश्चित्य' भगवतोऽष्टप्रातिहार्यरूपैश्वर्यसहितस्य यशोधरगुरोः पूजां कैवल्यमहोत्सवसपर्या विधातुं कर्तुं पृतनया सेनया साधु साकमुपसृत्य जगद्गुरोर्यशोधरमहाराजस्य पदयुगलं १० चरणयुगं पूजयामास । अथ पदयुगं विशिनष्टि-सुराञ्चितमपि देवपूजितमपि असुराञ्चितं देवपूजितं न भवतीति विरोधः परिहारस्तु सुराञ्चितमपि असुरैर्धरणेन्द्रादिभिरञ्चितं पूजितं, वनीपकजनानां याचकजनानां मनोषितस्याभिलषितस्य पूरकमपि वनीपकजनमनीषितपूरकं न भवतीति अवनीपकजनमनीषितपूरकमिति विरोधः परिहारस्तु अवनीं पृथिवीं पान्ति रक्षन्तीति अवनीपा अवनोपा एव अवनीपका राजानः ते च ते जनाश्च तेषां मनीषितस्य पूरकं, भूमिः भूमी, अवनि, अवनी, श्रेणि, श्रेणी इत्यादयः शब्दा इकारान्ता ईकारान्ताश्च १५ द्विरूपकोशे प्रयुक्ताः । 'वनीपको याचनको मार्गणो याचकाथिनौ' इत्यमरः । खरास्तीक्ष्णा अंशवो रश्मयो यस्य खरांशुः सूर्यस्तद्वत् कान्तमपि मनोहरमपि न खरांशुकान्तमिति नखरांशुकान्तमिति विरोधः परिहारस्तु नखराणां नखानामंशुभिः किरणैः कान्तमिति विरोधाभासोऽलंकारः। ६ २० ) तत्पादाविति-शुद्धा धीर्यस्य विशुद्धबुद्धिकः, उद्वेलो मर्यादातीतः पुण्योदयो यस्य तथाभूतः, असौ नरपतिः तत्पादौ यशोधरगुरुचरणी प्रणमन् नमस्कुर्वन् लब्धावधिः प्राप्तावधिज्ञानः सन् प्राग्भवे पूर्वपर्याये, स्वस्यैवात्मन एव पुण्याजितं सुकृतोत्पादितम् अच्युतकल्पे २० भगव हुए दो कार्य उपस्थित होनेपर राजाकी मनोवृत्ति दो भागोंमें विभक्त हो गयी ॥११।। $ १९) तदन्विति-तदनन्तर इन दोनों कार्यों में पहले क्या करना चाहिए ? इस प्रकारकी चिन्तासे राजा क्षणभरके लिए व्याकुल हुए परन्तु थोड़ी ही देर में उन्होंने निश्चय कर लिया कि धर्मकार्य और अर्थकार्य के मध्यमें धर्मकार्य ही मुख्य है। इस प्रकार निश्चय कर राजा वज्रदन्त • यशोधरगुरुकी पूजा करनेके लिए सेनाके साथ उनके पास पहुँचे और वहाँ जाकर २५ उन्होंने यशोधरगुरुके उस चरणयुगलकी पूजा की जो सुरांचित-देवोंसे पूजित होनेपर भी असुरांचित-देवोंसे पूजित नहीं था (परिहारपक्ष में असुरों-धरणेन्द्र आदि देवोंसे पूजित था) वनीपकजनमनीषितपूरक-याचकजनोंकी अभिलाषाका पुरक होकर भी अवनीपकजनमनीषितपरक-याचकजनोंकी अभिलाषाका पूरक नहीं था। (परिहारपक्ष में राजाओंकी अभिलाषाका पूरक था) तथा खरांशुकान्त-सूर्यके समान सुन्दर होकर भी नखरांशकान्त- ३० सूर्यके समान सुन्दर नहीं था (परिहारपक्षमें नाखूनोंकी कान्तिसे सुन्दर था)। $२० ) तत्पादाविति-जिसकी बुद्धि विशुद्ध थी तथा जिसको असीम पुण्यका उदय था ऐसे राजा वज्रदन्तने यशोधरगुरुके चरणयुगलको प्रणाम करते ही अवधिज्ञान प्राप्त कर लिया उस अवधिज्ञानके द्वारा उसने यह सब वृत्तान्त अत्यन्त स्पष्टरूपसे जान लिया कि पूर्वभवमें मैंने १. पाद-क०। ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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