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________________ ५ १० १५ सेनोज्ज्वलं शोभमानम् । यस्या विशालनयनद्वन्द्वं दीर्घलोचनयुगलं कर्णस्य राधेयस्य प्रणयेन प्रीत्या परीतमपि व्याप्तमपि कृष्णार्जुनयोः वासुदेवपार्थयो रुच्या प्रीत्या मेदुरमिति विरोधः कर्णः कौरवपक्षपाती कृष्णार्जुनी तु पाण्डवपक्षपातिनौ तयोरेकत्र प्रीतिविरुद्धेति भावः । परिहारपक्षे कर्णयोः श्रोत्रयोः प्रणयः प्राप्तिस्तेन परीतमपि श्रोत्रपर्यन्तदीर्घमिति भावः । कृष्णार्जुनरुचिभ्यां कृष्णशुक्लकान्तिभ्यां मेदुरं सहितम् । यस्या मुखं कमलं वदनवारिजं कृतो विहितो राज्ञा चन्द्रेण विद्वेषो विरोधो येन तथाभूतमपि राज्ञ उल्लासं राजोलासं चन्द्रोल्लासम् आदधानं कुर्वाणमिति विरोधः यच्चन्द्रद्वेषि तदेव चन्द्रोल्लासि कथं भवेदिति भावः, परिहारपक्षे राज्ञो नृपस्य पत्युरुल्लासमादधानम्, 'राजा प्रभौ नृपे चन्द्रे यक्षे क्षत्रियशक्रयो:' इति विश्वः । तदेव मुखकमलं भोगाय हितमपि भोगाय हितं न भवतीति नभोगहितमिति विरोधः, परिहारपक्षे नभसि गच्छतीति नभोगोऽतिबलविद्याधरस्तस्मै हितम्, विरराज शुशुभे ॥ सर्वत्र श्लेषानुप्राणितो विरोधाभासालंकारः । अथ तयोः पुत्रं वर्णयितुमाह-- ६ २७ ) महाबलेति - सा च स चेति तौ तयोः मनोहरातिबलयोः महोदयो महावैभवशाली सर्वकलासु निखिलचातुरीषु कोविदो विद्वान् 'विद्वान् विपश्चिद्दोषज्ञः सन्सुधीः कोविदो बुधः' इत्यमरः । महाबलख्यातसुतो महाबलाभिधानः पुत्रः अभूत् । भिन्नेषु अन्येषु सुतेषु सत्स्वपि यन्मयो यत्संबन्धिनी महीपते राज्ञः प्रमोदवल्ली हर्षलता ववृधे वृद्धिगता । वंशस्थवृत्तम् ॥ २३ ॥ $२८ ) कलासरणीति - कलासरणिरेव वैदग्धी संततिरेव लासिका नर्तकी तस्या विविधलास्यानां नानानृत्त्यानां रङ्गस्थली रङ्गभूमिस्तस्या निकाशः सदृशो रसनाञ्चलो जिह्वाग्रहोने पर भी पल्लव - यावकको तिरस्कृत करनेवाला था ( परिहार पक्षमें बहुतभारी यावक से रंगा हुआ होकर भी पल्लव-वृक्षकी नवीन कोंपलको तिरस्कृत करनेवाला था अर्थात् उससे भी कहीं अधिक लाल था ) । तथा नवसुधार सोज्ज्वल - वसुधारस - यावकरस - लालरंगसे उज्ज्वल न होकर भी वसुधारससे उज्ज्वल था ( परिहार पक्ष में नवसुधारस - नूतन अमृतके समान रससे उज्ज्वल होकर भी वसुधारस - यावक - लालरंगसे उज्ज्वल था । उसके दीर्घत्रका युगल कर्ण प्रणय - राधाके पुत्र - अंगदेश के राजा कर्णके स्नेह से सहित होकर भी कृष्णार्जुन रुचि - श्रीकृष्ण तथा अर्जुनकी प्रीति से सहित था ( परिहार पक्ष में कर्णप्रणय कानोंकी प्राप्ति सहित थे अर्थात् कानों तक लम्बे थे और कृष्ण - काली तथा अर्जुनसफेद रुचि - कान्तिसे सहित था ) । तथा उसका मुखकमल कृतराजविद्वेष- - राजा अर्थात् चन्द्रमाके साथ द्वेष करनेवाला होकर भी राजोल्लास - चन्द्रमाके उल्लासको धारण करनेवाला था ( परिहार पक्षमें सौन्दर्य से चन्द्रमाके साथ द्वेष करता हुआ भी राजा - पति अतिबल राजाके उल्लास - आनन्दको धारण करनेवाला था) और भोगहित - भोगके लिए हितकारक होकर भी नभोगहित - भोगके लिए हितकारक नहीं था ( परिहार पक्ष में भोगके लिए हितकारक होकर भी नभोगहित - आकाशगामी राजा अतिबल विद्याधरके लिए हितकारी था ) । $२७ ) महाबलेति -उन अतिबल और मनोहराके महावैभवशाली तथा समस्त कलाओं में निपुण महाबल नामका पुत्र हुआ । अन्य पुत्रोंके रहने पर भी जिससे सम्बन्ध रखने वाली राजाकी हर्षरूपी लता ऋद्धिको प्राप्त हुई थी ||२३|| 8 २८ ) कलासरणीति - कलाओंकी सन्ततिरूपी नृत्यकारिणीके नाना प्रकार के नृत्योंकी रंगभूमिके समान जिसकी जिह्वाका अग्रभाग था, जो समस्त विद्वानोंको आनन्दित करनेवाला ३५ २० २५ पुरुदेव चम्पूप्रबन्धे [ 31886 कृष्णार्जुनरुचिमेदुरं मुखकमलं पुनः कृतराजविद्वेषमपि राजोल्लासमादधानं भोगहितमपि नभोगहितं विरराज । ३० १६ $ २७ ) महाबलख्यातसुतस्तयोरभून्महोदयः सर्वकलासु कोविदः । तेषु भिन्नेष्वपि सत्सु यन्मयो प्रमोदवल्ली ववृधे महीपतेः ॥२३॥ $ २८ ) कलासरणिलासिकाविविधलास्य रङ्गस्थलीनिकाशरसनाञ्चलो निखिलकोविदोल्लासकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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