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________________ ३६ दशम स्तबक जब चक्ररत्नने अयोध्या के गोपुरमें प्रवेश नहीं किया तब उन्होंने पुरोहित से इसका कारण पूछा । पुरोहितने बताया कि अभी भाइयोंको वश करना बाकी है । चक्रवर्तीने सब भाइयोंके पास दूत भेजकर यह सन्देश भेजा कि हमारी अधीनता स्वीकृत करो । बाहुबलीको छोड़ सब भाइयोंने भगवान् वृषभदेवके पास जिनदीक्षा धारण कर ली । अब बाहुबलीके पास भरतने दूत भेजा । दूतने जाकर भरतकी यशः प्रशस्ति सुनाते हुए बाहुबलीसे भरतकी अधीनता स्वीकृत करनेको कहा परन्तु बाहुबली इसके लिए तैयार नहीं हुए । रोषपूर्ण शब्दोंमें उन्होंने भरतके सन्देशका उत्तर देकर दूतको बिदा किया और सेना साथ लेकर युद्धके प्रांगण में आ पहुँचे । पुरुदेव चम्पूप्रबन्ध युद्ध के प्रांगणमें जब दोनों ओरकी सेनाएँ पहुँच चुकीं तब बुद्धिमान् मन्त्रियोंने मन्त्रणा की कि यह शक्ति परीक्षणका युद्ध सेनामें न होकर दोनों भाइयोंमें ही हो और वह भी शस्त्रोंके प्रयोग के बिना । दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध इस प्रकार तीन युद्ध निश्चित किये गये। तीनों युद्धोंमें जब बाहुबली विजयी घोषित किये गये तब भरतने क्रोधके वशीभूत हो उनपर चक्ररत्न चला दिया। इस घटना से बाहुबलीका चित्त संसारसे विरक्त हो गया । उन्होंने एक वर्षके योगका नियम लेकर जिनदीक्षा धारण कर ली और घोर तपश्चरण कर केवलज्ञान प्राप्त किया । अब समस्त छह खण्डोंके विजेता भरत चक्रवर्तीने चक्ररत्न के साथ अयोध्या में प्रवेश किया । चक्रवर्तीके भोगोपभोगका वर्णन | ब्राह्मणवर्णकी स्थापनाका वर्णन । चक्रवर्ती भरतके द्वारा स्वप्नदर्शन तथा भगवान् वृषभदेवके द्वारा उनके फलोंका वर्णन | हस्तिनापुर के राजा जयकुमारकी दीक्षा लेने तथा गणधर होनेका वर्णन | भगवान् वृषभदेव षट्खण्ड भरतक्षेत्र में विहार कर कैलास पर्वतपर पहुँचे । तथा योग निरोध कर ध्यानारूढ हो गये । इधर भरतने स्वप्न देखे तथा शासनदेवसे भगवान् के योग निरोधका समाचार जानकर कैलास की ओर प्रयाण किया । वहाँ जाकर १४ दिन तक भरतने भगवान् की पूजा की। भगवान्ने मोक्ष प्राप्त किया । देवोंने निर्वाणकल्याणकका उत्सव किया । वृषभसेन गणधरने पितृवियोगसे खिन्न भरतको सान्त्वना दी । भरतने भी संसारसे निर्विण्ण हो जिनदीक्षा धारण कर धर्मामृत की वर्षा की | पश्चात् निर्वाणपद प्राप्त किया । अन्तिम मंगल । कविप्रशस्ति टीकाकर्तृ प्रशस्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only १-२२ २३-३७ ३८-४१ ४२-४५ ४६-५६ ५७-६६ ६७-७१ ३४८-३५५ ३५५-३६१ ३६१-३६२ ३६२-३६४ ३६४-३६८ ३६९-३७१ ३७१-३७३ ३७४ ३७५ www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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