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________________ ३५ विषयानुक्रमणिका 'भगवान्को केवलज्ञान हुआ है' यह जानकर भरत महाराज वैभवके साथ समवसरणमें आये तथा भक्तिपूर्वक भगवान्की पूजा कर कृतकृत्य हुए। तदनन्तर भगवान्की दिव्यध्वनि खिरी । राजा श्रेयान्स, तथा ब्राह्मी, सुन्दरी आदि पुत्रियोंने दीक्षा ग्रहण की। जो कच्छ-महाकच्छ आदि राजा पहले भ्रष्ट हो गये थे उन्होंने पुनः दीक्षा ग्रहण की। किन्तु मरीचि नहीं सुलटा । अनन्तवीर्य पुत्रने दीक्षा ली और इस अवसर्पिणीकालमें सबसे प्रथम मोक्ष प्राप्त किया। भगवानकी स्तुति कर भरत अपने नगरमें वापस आये। इन्द्रकी प्रार्थनासे अनेक देशों में विहार कर भगवान् पुनः कैलास पर्वतपर जा पहुँचे। ६६-७३ ३१५-३१८ ७४ ३१९-२२० ३२१-३३१ ३३१-३३६ नवम स्तबक समवसरणसे वापस आकर भरतराजने आयुधशालामें प्रकट हुए चक्ररत्न की पूजा की। उसी समय शरद् ऋतुका सुहावना समय आ गया। जिससे भरत महाराज चतुरंगिणी सेनाके साथ दिग्विजयके लिए नगरसे बाहर निकले । सेनाका वर्णन । क्रमसे बढ़ते हुए भरत महाराजने गंगा नदीको देखा। सारथिने गंगाकी शोभाका वर्णन किया। सारथिके वचन सुनते हुए वे गंगाद्वार पहुँचे । वहाँ समुद्रतट पर सेनाको ठहरा कर उन्होंने पंचपरमेष्ठीकी पूजा की। १-१८ अमोघ बाण छोड़कर लवण समुद्रके अधिष्ठाता व्यन्तरदेवको वश किया। तदनन्तर दक्षिण और पश्चिम दिशाको जीतकर उत्तर दिशाकी ओर प्रयाण किया। १९-२९ उत्तर दिशामें विजयागिरिका शासक विजयादेव नतमस्तक होकर और चक्रवर्तीकी स्तुति कर कृतकृत्य हआ। तदनन्तर विजया की पश्चिमा गुहाके समीप जब पहुँचे तब कृतमालदेवने आत्मसमर्पण किया। म्लेच्छ खण्डोंकी विजयका वर्णन । कुछ म्लेच्छ राजाओं में मेघमुख नामसे प्रसिद्ध नाग देवोंका आराधन कर चक्रवर्तीके साथ युद्ध किया। मेघमुख देवोंने घनघोर वर्षा कर इन्हें सात दिनतक संकटमें डाला । अनन्तर जयकुमार सेनापतिके आग्नेय बाणसे वे मेघमुख देव भाग गये। विजयी चक्रवर्तीने जयकुमारका बहत सम्मान किया। ३०-५२ इसके पश्चात् चक्रवर्तीने हिमवत्कूटको लक्ष्य कर बाण चलाया । जिससे वहाँका देव इनका सम्मान करनेके लिए आया। इस प्रकार उत्तर खण्डोंकी विजय कर वे वृषभाचलपर आये। वहाँ उन्होंने हजारों राजाओंकी प्रशस्तियोंको उत्कीर्ण देख गर्वका त्याग किया। तथा किसी अन्यकी प्रशस्तिको मिटाकर उसपर अपनी प्रशस्ति खुदवायी । नमि-विनमि विद्याधर राजाओंकी प्रार्थनासे उन्होंने उनकी सुभद्रा नामक बहनसे विवाह किया। पश्चात् कितने ही पड़ावकर वे कैलास पर्वतपर पहँचे। वहाँ त्रिलोकपति भगवान वृषभदेवकी पूजा कर कुछ पड़ावों द्वारा अयोध्या वापस आ गये। ३३७-३४५ ३४५-३४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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