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________________ ३५० पुरुदेव चम्पूप्रबन्धे मां भृत्येषु नियुक्तवान्निधिपतिस्तात ! श्रुतं तेऽस्त्विति श्रीवादि ध्रुवं जलनिधिं यत्कीर्तिराटीकत ॥३॥ $६ ) किं च यः किल वीर्यलक्ष्मीनिलयो निःस्वोपकारसमासक्तो निखिलसंपद्विराजमानो निध्यादरविरहितो निजायां मतेरधीनः समापततामरातीनां रणे संनिधिमात्रेण निधनदः सख्यानां ५ नियम प्रकारगोचरः सरसमेत्रीनिघ्नगुणाकरः परनियतिधिक्कारधुरीणः संमानना विषयीकृत नियोगिजनः चक्रधरस्तद्रिपुश्च किं तु तद्रिपुन्यून इति विशेषः । [ १०1६ वत्या स्त्रिया परवशो निधिपतिर्भरतः अस्यां नारीं न समालोकते न पश्यति । स मां भृत्येषु सेवकेषु नियुक्तवान् दत्तवान् | हे तात ! हे पितः ! ते तव इति पूर्वोक्तं श्रुतम् अस्तु, इतीत्थंभूतां श्रीवार्ता लक्ष्मीवार्ता गदितुं कथयितुं यत्कीर्तिर्यदीयसमाज्या जलनिधि सागरम् आटीकत प्राप्नोत् ध्रुवमित्युत्प्रेक्षायाम् तदीया कीर्तिः १० समुद्रान्तं प्रसूतास्तीति भावः । शार्दूलविक्रीडितम् ||३|| ६ ६ ) किं चेति यः किल चक्रधरो भरतो वीर्यलक्ष्म्या वीरश्रिया निलयो गृहं तद्रिपुश्च तथा किं तु स न्यूनो होनः नि-अक्षरेण रहितश्च वीर्यलक्ष्मीलयो वीरश्री विनाशक इत्यर्थः, निःस्वोपकारसमासक्तः निर्धनमनुष्योपकारलीनः तद्विपुस्तु न्यूनत्वेन स्वोपकारसमासक्तो निजोदरभरणशीलः, निखिलसंपद्विराजमानः सर्वसंपत्तिशोभमानः तद्रिपुस्तु न्यूनत्वेन खिलसंपद्विराजमाना सविधनसंपत्तिशोभमानः, निष्यादरविरहितः निघो द्रव्यादिषु आदरविरहितः तद्रिपुस्तु न्यूनत्वेन घ्यादर१५ विरहितो बुद्धघादररहितः, निजायामतेरधीनः स्वस्याबुद्धेरधीनः तद्रिपुस्तु न्यूनत्वेन जायामतेरधीनः स्त्रीबुद्धिनिघ्नः, रणे युद्धे संनिधिमात्रेण संनिधानमात्रेणैव समापततां समागच्छताम् अरातीनां शत्रूणां निधनदो मृत्युप्रदः तद्रिपुस्तु न्यूनत्वेन रणे संधिमात्रेण समापततां शत्रूणां धनदो घनप्रदः, सख्यानां मैत्रीणां नियमप्रकारगोचरो नियमेन मैत्रीणां विषयः तद्रिपुस्तु न्यूनत्वेन सख्यानां यमप्रकारगोचरो विनाशप्रकार विषयः, मैत्रीविनाशक इत्यर्थः, सरसमैत्रीनिधनाः सरससख्याधीना ये गुणास्तेषामाकरः खनिः तद्रिपुस्तु न्यूनत्वेन २० सरस मैत्रीघ्नगुणाकरः सरसमंत्रीघातकगुणखनिः, परनियतेः परभाग्यस्य धिक्कारे तिरस्कारे धुरीणो निपुणः Jain Education International प्रतिदिन चाण्डालोंके ऊपर पड़ती है) समीचीन धारासे युक्त उस तलवारके वशीभूत हुआ 'चक्रवर्ती दूसरीकी ओर देखता भी नहीं है ( पक्ष में समीचीन हारसे युक्त उस स्त्रीके वश हुआ किसी अन्य स्त्रीकी ओर देखता भी नहीं है ) मुझे तो उसने नौकरोंके लिए दे रखा है । है पिता जी ! यह सब समाचार आपके सुन पड़े, इस प्रकार लक्ष्मीका यह समाचार २५ कहने के लिए ही मानो जिसकी कीर्ति समुद्र तक गयी थी ||३|| $६ ) कि चेति -- एक बात यह भी है कि जो भरतराज वीर्यलक्ष्मीनिलय है-- पराक्रमरूपी लक्ष्मीका घर है तथा उसका शत्रु भी ऐसा ही है परन्तु वह न्यून है 'नि' इस अक्षरसे रहित है अर्थात् वीर्य लक्ष्मीलय है-पराक्रमरूपी लक्ष्मीका नाश करने वाला है, जो निःस्वोपकार समासक्त है --निर्धन मनुष्योंके उपकार में लीन है परन्तु उसका शत्रु न्यून होनेके कारण स्त्रोपकार समासक्त है -- मात्र ३० अपना उपकार करनेमें लीन है, जो निखिल सम्पद्विराजमान -- समस्त सम्पत्तियोंसे शोभायमान है परन्तु उसका शत्रु न्यून होनेके कारण खिलसम्पद्विराजमान - विनित सम्पत्ति से विराजमान है, जो निध्यादरविरहित -- निधि-विषयक आदरसे रहित है परन्तु उसका शत्रु न्यून होनेसे व्यादरविरहित -- बुद्धिके आदरसे रहित है, जो निजायामतेरधीनः-अपनी बुद्धिके अधीन है परन्तु उसका शत्रु न्यून होनेसे जायामतेरधीनः -- स्त्रीकी बुद्धिके ३५ अधीन है, जो रणमें सन्निधिमात्र - उपस्थित रहने मात्र से आते हुए शत्रुओंके निधनदः -- मरणको देनेवाला है परन्तु उसका शत्रु न्यून होनेसे सन्धिमात्रसे युद्ध में आनेवाले शत्रुओं को धनदः - धनका देनेवाला है, जो मित्रताओंके नियम प्रकार - नियमोंका गोचर है परन्तु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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