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________________ ३० १२३-१२७ १२७-१३० पुरुदेवचम्पूप्रबन्ध श्रीधर देव स्वर्गसे च्युत होकर जम्बूद्वीपके विदेहक्षेत्र सम्बन्धी वत्सकावती देशकी सुसीमा नगरीमें सुविधि नामक पुत्र हुआ। अन्य साथी भी वहीं उत्पन्न हुए। उसके वैभवका वर्णन । ७७-८६ तत्पश्चात् सुविधि, आयुके अन्तमें दीक्षा धारण कर अच्युत स्वर्गका इन्द्र हुआ। इनके अन्य साथी भी उसी स्वर्ग में उत्पन्न हुए। अच्युतेन्द्रके वैभवका वर्णन ८७-९५ तदनन्तर अच्युतेन्द्रकी पर्यायसे च्युत होकर अच्युतेन्द्रका जीव जम्बूद्वीप सम्बन्धी पुण्डरीकिणी नगरीमें श्रीकान्त और वज्रसेन नामक दम्पतीके वज्रनाभि नामक पुत्र हआ यह चक्रवर्ती था। इसके अन्य साथी भी यहीं उत्पन्न हए। वचनाभिकी शरीर सम्पति तथा वैभवका वर्णन ९६-१११ एक दिन राजा वज्रनाभिने संसारसे विरक्त होकर वनदन्त नामक पुत्रको राज्य दिया और स्वयं जिनदीक्षा धारण कर ली। मुनि अवस्थामें सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन कर उन्होंने तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया। आयुके अन्त में समाधिमरण कर सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुए । उनके अन्य साथी भी वहीं उत्पन्न हुए। अहमिन्द्र के सुखका वर्णन। ११२-११८ १३०-१३५ १३५-१३९ चतुर्थ स्तबक भोगभूमि और कर्मभूमिके सन्धिकालमें अन्तिम कुलकर नामिराज हुए। उनकी रानीका नाम मरुदेवी था। मरुदेवीका नख-शिख वर्णन। १-२० १४०-१४७ २१-२७ १४७-१५३ नाभिराज और मरुदेवीसे अलंकृत उस देशमें इन्द्रने अयोध्याकी रचना की। अयोध्याका साहित्यिक वर्णन । इन्द्रने उस नगरीमें राजा नाभिराजका राज्याभिषेक किया। अहमिन्द्रकी आयुके छह माह शेष रहनेपर कुबेरने रत्नवृष्टि की। जिससे यह पृथिवी रत्नगर्भा हो गयी। कदाचित् महलमें सुखसे सोयी हुई मरुदेवीने सोलह स्वप्न देखे । राजा नाभिराजने उन स्वप्नोंका फल बताया कि तुम्हारे तीर्थंकर पुत्र उत्पन्न होगा। इन्द्रकी आज्ञासे दिक्कन्यकाएँ मरुदेवीकी सेवा करने लगीं तथा तरह-तरह प्रश्नालापिकाओंके द्वारा उनका मन बहलाने लगीं। चैत्रकृष्ण नवमीके दिन मरुदेवीने जिनबालकको जन्म दिया। जिनेन्द्रका जन्म होते ही तीनों लोकोंमें हर्ष छा गया। प्रसूतिका गृहके दीपक निष्प्रभ हो गये, सूर्यका प्रकाश मन्द पड़ गया, दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं और कल्पवृक्षोंसे पुष्प वर्षा होने लगी, अयोध्याकी शोभा निराली हो गयी । पताकाओंके कारण उसमें सूर्य किरणोंका प्रवेश दुर्भर हो गया। २८-३६ १५३-१५८ ३७-५५ १५८-१६४ ५६-६७ १६५-१३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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