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विषयानुक्रमणिका
उन्हें बताये । साथ ही यह भी कहा कि ये जीव पात्रदानकी अनुमोदना करने से आपके साथ ही भोगभूमिमें उत्पन्न होंगे तथा आगामी भवों में भी आपके ही साथ उत्पन्न होते रहेंगे । मुनिराज चले गये ।
वज्रघने पुण्डरीकिणी नगरी जा कर वहाँ की राज्यव्यवस्थाको व्यवस्थित किया और वहाँसे लौटकर अपनी राजधानीमें प्रवेश किया । वहाँ श्रीमती के साथ सुखोपभोग करते हुए समय व्यतीत करने लगे ।
वज्रजंघ और श्रीमती आयु समाप्त होने पर जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र सम्बन्धी उत्तरकुरुक्षेत्रमें आर्य दम्पती हुए । पूर्वोक्त मतिवर आदि तथा नकुल आदि भी वहीं उत्पन्न हुए ।
आर्यदम्पतीने उन्हें
उनका प्रश्न सुन
दोनों दम्पती वहाँ कल्पवृक्षकी छाया में क्रीडा कर रहे थे । उसी समय आकाश सूर्यप्रभ विमानको देखकर उन्हें जातिस्मरण हो गया । जातिस्मरण होनेसे वे प्रतिबोधको प्राप्त हो ही रहे थे कि उतनेमें दो चारणऋद्धिधारी मुनिराज वहाँ जा पहुँचे । नमस्कार कर उनसे वहाँ पहुँचनेका कारण पूछा । ज्येष्ठ मुनि कहने लगे कि मैं आपके महाबल भवमें स्वयंबुद्ध नामका मन्त्री था । आपके वियोगसे खिन्न हो कर मैंने दीक्षा ले ली और तप कर मैं सौधर्म' स्वर्ग में मणिचूल नामक देव हुआ । वहाँसे आकर पुण्डरीकणी नगरी में सुन्दरी और प्रियसेन राजदम्पतिके प्रीतिकर नामक पुत्र हुआ । यह मेरा छोटा भाई है । स्वयंप्रभ जिनेन्द्रके समीप दीक्षा लेकर हम दोनोंने तपश्चरण किया । चारणऋद्धि प्राप्त की । अवधिज्ञानसे आपको यहाँ उत्पन्न जान, सम्यग्दर्शन प्राप्त करानेके लिए यहाँ आये हैं । महाबल भवमें आप सम्यग्दर्शन धारण नहीं कर सके थे । अब उसे धारण करो । आर्यदम्पतिने सम्यग्दर्शनका स्वरूप सुनकर उसे धारण किया । उपदेश देकर दोनों मुनिराज चले गये । आर्यदम्पति मरण कर ऐशान स्वर्ग में देव हुए । वज्रजंघका जीव श्रीप्रभ विमान में श्रीधर देव और श्रीमतीका जीव स्वयंप्रभ विमान में स्वयंप्रभ देव हुआ । शार्दूल आदिके जीव भी उसी स्वर्ग में उत्पन्न हुए। श्रीधर देवके स्वर्ग सुखका उपभोग करने लगा ।
एक बार श्रीधर देवने प्रीतिकर केवली से पूछा कि मेरे महाबल भवमें जो अन्य तीन मन्त्री थे वे कहाँ हैं । उन्होंने बताया कि संभिन्नमति और महामति निगोद गये हैं और शतमति दूसरे नरक गया है | केवलीके वचन सुनकर श्रीघर देवने दूसरे नरक जाकर शतमति जीवको सम्बोधा जिससे सम्यग्दर्शन धारण कर वह वहाँ से निकल कर जयसेन हुआ पश्चात् ब्रह्मेन्द्र होकर उसने श्रीधरकी पूजा की।
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