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________________ २७८ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [७६५६$ ५६ ) तत्रापितं कचकुलं कलशाम्बुराशिर्वीचीकरण परिगृह्य तदादरेण । डिण्डीरखण्डकपटेन कृताट्टहासो मोदाच्चलल्लहरिबाहुरयं ननर्त ॥४१॥ ६५७ ) तत्र कौतुकेन विलोकमानानां नाकलोकजनानां मेचकरुचिरुचिरतत्कचनिचयेन कुत्रचित् शैवालपुञ्जपरित इव, क्वचिद्वातानोतजलधरखण्डमण्डित इव, एकत्र समुन्मीलित५ कुवलयकोरकित इव, परत्र पुरंदरमणिप्रभापरीत इव, अन्यत्रान्तःसंचरज्जलदेवताकबरीभरपरीत इव, कुत्रचन श्यामलपन्नगमेचकित इव कलशतटिनीविटश्चकासामास । ६५८) ततः समागत्य मुदा मरुत्त्वान्स्तुत्वा च नत्वा च जिनेन्द्रपादौ । निलिम्पवर्गः सह नाकलोकं जगाम सम्यक् स्मृततद्गुणोघः॥४२॥ कलशवाराशिसलिले क्षोरसागरजले सैवालिकावलिः जलनीलीपङ्क्तिः बभूव इति एतत् विचित्रं विस्मयावहं १० न । ६ ५६ ) तत्रेति-तत्र पूर्वोक्तावसरे अपितं पुरंदरनिक्षिप्तं तत् कचकुलं केशसमूह वीचीकरण तरङ्गहस्तेन भादरेण सन्मानेन परिगृह्य स्वीकृत्य डिण्डीरखण्डकपटेन फेनशकलव्याजेन कृताट्टहास: विहितसशब्दहासः अयं कलशाम्बुराशिः क्षीराब्धिः मोदात् प्रमदात् चलल्लहरिबाहुः चलत्तरङ्गहस्तः सन् ननर्त नृत्यतिस्म । रूपकोत्प्रेक्षा ।। वसन्ततिलका छन्दः ॥४०॥ ६५७ ) तत्र कौतुकेनेति-तत्रावसरे कौतुकेन कुतूहलेन विलोक मानानां पश्यतां नाकलोकजनानां देवानां कलशतटिनीविटः क्षीरसागरः, मेचकरुच्या श्यामलकान्त्या रुचिरो १५ मनोहरो यस्तत्कचनिचयो जिनेन्द्रकेशकलापस्तेन कुत्रचित्क्वापि शैवालपुञ्जेन जलनीलीसमूहेन पारित इव व्याप्त इव, क्वचित् कुत्रचित् वातानीतेन समीराकृष्टेन जलधरखण्डेन मेघशकलेन मण्डितः शोभित इव, एकत्र एकस्मिन् स्थले समुन्मोलितकुवलयकोरकित इव प्रकटितोत्पलकुड्मलव्याप्त इव, परत्र अन्यस्मिन् स्थाने पुरंदरमणोनामिन्द्रनीलमणीनां प्रभाभिः परीत इव व्याप्त इव, अन्यत्र अन्तर्मध्ये संचरन्तीनां जलदेवतानां कबरीभरेण धम्मिलसमूहेन परीत इव व्याप्त इव, कुत्रचन क्वापि श्यामलपन्न गैः कृष्णसर्पः मेचकित इव २० कृष्णवर्ण इव च चकासामास शुशुभे । उत्प्रेक्षा । ६.८ ) तत इति-मरुत्त्वानिन्द्रः मुदा हर्षेण ततः क्षीरसागरात् प्रत्यावर्त्य समागत्य जिनेन्द्रपादो जिनराजचरणो स्तुत्वा नुत्वा नत्वा च नमस्कृत्य च सम्यक सुष्ठु स्मृतोऽनुष्यातः तद्गुणोघो भगवद्गुणसमूहो येन तथाभूतः सन् निलिम्पवगैरमरसमूहैः सह साधं नाकलोकं भीरसमुद्रके जलमें शेवालकी माला हो गयी थी इसमें आश्चर्यकी बात नहीं है। ६५६) तत्रेति-उस समय इन्द्र के द्वारा समर्पित उस केशसमूहको आदरपूर्वक तरंगरूपी २५ हाथसे स्वीकृतकर फेनखण्डोंके कपटसे अट्टहास करता हुआ यह क्षीरसागर हर्षवश चंचल तरंग रूप भुजाओंसे मानो नृत्य ही कर रहा था ।।४।। ६५७) तत्र कौतुकेनेति-उस समय कुतूहलवश देखनेवाले देवोंके सामने यह क्षीरसागर, उस श्यामल केशोंके समूहसे कहीं तो ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो शेवालके समूहसे व्याप्त हो हो, कहीं ऐसा जान पड़ता था मानो वायुके द्वारा लाये हुए मेघके खण्डोंसे ही सुशोभित हो रहा हो, कहीं ऐसा लगता ३० था मानो प्रकट हुई नील कमलोंकी बोंडियोंसे ही युक्त हो, कहीं ऐसा प्रतिभासित होता था मानो इन्द्रनील मणियोंकी प्रभासे ही व्याप्त हो, कहीं ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भीतर चलते हुए जलदेवताओंके केशपाशसे ही व्याप्त हो, और कहीं ऐसा मालूम होता था मानो काले सोसे ही काला काला हो रहा हो । ६ ५८ ) तत इति-वहाँसे लौटकर इन्द्रने हर्षपूर्वक जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंकी स्तुति की, नमस्कार किया। तदनन्तर वह उन्हींके गुण समूहका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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