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विषयानुक्रमणिका
द्वितीय स्तबक
आयु समाप्त होनेपर ललितांग देव स्वर्गसे च्युत होकर जम्बूद्वीप सम्बन्धी पुष्कलावती देशमें स्थित उत्पलखेट नामक नगरीके राजा वज्रबाहु और उनकी रानी वसुन्धराके वज्रजंघ नामका पुत्र हुआ । वज्रजंघ बालचन्द्रके समान बढ़ने लगा ।
ललितांगदेवके वियोगसे स्वयंप्रभा देवी दुःखी तो हुई परन्तु दृढ़वर्म नामक देवके द्वारा सम्बोधित होकर उसने छहमाह तक जिनेन्द्र की पूजा की। पश्चात् सौमनस वनके चैत्यवृक्ष के नीचे पंच परमेष्ठीका ध्यान करती हुई वहाँसे च्युत हुई और जम्बूद्वीप सम्बन्धी पूर्वविदेह क्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरीमें वहाँके राजा वज्रदन्त और रानी लक्ष्मीमती श्रीमती नामक पुत्री हुई । श्रीमती बहुत ही
सुन्दर थी ।
एक दिन श्रीमती राजभवन की छतपर सो रही थी । उसी समय यशोधर केवलीकी पूजासे लौटे हुए देवोंका कल-कल शब्द सुनकर जाग गयी । इस घटनासे उसे जाति-स्मरण हो गया जिससे ललितांग देव उसकी आँखों के सामने झूलने लगा । पहले तो वह मूच्छित हुई पश्चात् शीतलोपचार करनेसे सचेत हो गयी । वह मौनसे रहने लगी । माता-पिता आदि सभी उसकी चेष्टासे दुःखी हुए ।
श्रीमती पिता वज्रदन्त चक्रवर्ती थे । वे प्रकट हुए चक्ररत्नकी पूजाको स्थगित कर अपने पिताके केवलज्ञान महोत्सबमें गये । वहाँ केवली भगवान्को नमस्कार करते ही उन्हें अवधिज्ञान हो गया जिससे वे अपने, श्रीमती तथा वज्रजंधके पूर्वभवोंको स्पष्ट जानने लगे । कैवल्य महोत्सवसे लौटकर वे. दिग्विजयके लिए चल दिये और श्रीमतीकी सेवा के लिए पण्डिता नामक धायको नियुक्त कर गये ।
पण्डिता धायने एक दिन अशोक वाटिकामें स्थित श्रीमतीसे प्रेमपूर्वक उसके मौन रहनेका कारण पूछा तब उसने जाति-स्मरणको उसका कारण बताया । इसी सन्दर्भमें ललितांगदेव सम्बन्धी अनेक घटनाएँ सुनायीं । मैं पहले क्या थी, यहाँ कैसे उत्पन्न हुई, यह सब बताया । अन्त में उसने अपने द्वारा लिखित चित्रपट देते हुए पण्डिता धायसे कहा कि तुम इस चित्रपटको दिखाकर उस ललितांगदेवका पता चलाओ । पण्डिता धायने उसे सान्त्वना दी ।
पण्डिता धाय चित्रपट लेकर महापूत नामक चैत्यालयमें गयी और वहाँ चित्रपट फैलाकर लोगोंको दिखलाने लगी ।
इसी बीच में चक्रवर्ती दिग्विजयसे लौटकर राजधानीमें वापस आ गये। वापस आकर उन्होंने श्रीमतोको सान्त्वना दी और पिछले पाँच भवों का वर्णन उसे सुनाया तथा यह भी बताया कि ललितांग देव हमारा भानेज है । वह यहाँ आ रहा है तथा शीघ्र ही उसके साथ
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