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________________ २६ पुरुदेव चम्पूप्रबन्ध स्वयंबुद्ध मन्त्री वन्दना कर सौमनसवनके पश्चिम दिशा सम्बन्धी चैत्यालय में बैठा ही था कि वहाँ चारणऋद्धिके धारी आदित्यगति और अरिंजय नामके दो मुनिराज जा पहुँचे। उनके दर्शन कर स्वयंबुद्धने उनसे पूछा कि हे भगवन् ! हमारा राजा महाबल भव्य है या अभव्य ? स्वयंबुद्धके प्रश्न के उत्तर में आदित्यगति मुनिराजने कहा कि वह भव्य है और दशमभवमें भरतक्षेत्रका तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त करेगा । इसी सन्दर्भ में उन्होंने महाबलके पूर्वभव सुनाते हुए कहा कि वह पश्चिम विदेहमें सुशोभित गन्धिला देशके सिंहपुर नगरके राजा श्रीषेण और श्रीसुन्दरीका जयवर्मा नामका पुत्र था। छोटे भाईको राज्य दिये जानेके कारण उसने संसारसे विरक्त हो मुनिदीक्षा ले ली । एक दिन आकाशमें वैभवके साथ जाते हुए एक विद्याधरको देखकर उसने निदान किया । उसी समय साँपके काटनेसे उसकी मृत्यु हो गयी और वह मरकर महाबल हुआ । पूर्वभव सम्बन्धी भोगलिप्सा के कारण ही वह भोगोंमें लिप्त हो रहा है । आदित्यगति मुनिराजने यह भी कहा कि आज महाबलने दो स्वप्न देखे हैं । पहले स्वप्न में देखा है कि तुम्हारे सिवाय तीन मन्त्रियोंने उसे बहुत भारी कीचड़ में गिरा दिया है परन्तु तुमने उन मन्त्रियोंको डाँटकर महाबलको कीचड़से निकाला तथा सिंहासनपर बैठाकर अभिषेक किया । दूसरे स्वप्न में क्षीण होती हुई दीपककी ज्वाला देखी है । वह स्वप्नों का फल जाननेके लिए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है सो तुम जाकर उसे स्वप्नोंका फल बताओ । पहला स्वप्न उसकी समृद्धिको सूचित करनेवाला है और दूसरा स्वप्न, उसकी आयु एक माह की शेष है, यह सूचित करना है । तुम्हारे मुखसे स्वप्नोंका फल सुनकर वह धर्म में श्रद्धा करेगा । यह कहकर मुनिराज चले गये । स्वयंबुद्धने भी घर आकर महाबलको स्वप्नोंका फल सुनाया । स्वयं बुद्ध मन्त्री के मुखसे स्वप्नोंका फल सुनकर महाबलने आठ दिन तक आष्टा पर्वका महोत्सव किया और शेष २२ दिनकी सल्लेखना धारण की । अन्तमें समताभावसे प्राण त्यागकर वह ऐशानस्वर्ग में ललितांग नामका देव हुआ । ललितांगकी शोभा और वैभवका वर्णन वहाँ ललितांगदेवकी अनेक देवांगनाएँ हुईं । अन्तमें स्वयंप्रभा नामकी देवी हुई जो बहुत ही सुन्दर थी । स्वयंप्रभाके साथ ललितांगदेव नाना द्वीप समुद्रोंमें क्रीडा करता हुआ काल व्यतीत करने लगा । स्तबकान्तमंगल Jain Education International For Private & Personal Use Only ६६-६९ ७०-७५ ७६-८१ ८२-८६ ८७-९६ ९७-१०२ १०३ ३२-३४ ३४-३५ ३५-३७ ३७-३९ ३९-४४ ४४-४६ ४७ www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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