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________________ -१३ ] सप्तमः स्तबकः २५७ समाश्वास्य च मुहुः प्रजानिकरं मा भैष्टेति गिरा सुराधिपस्य सस्भार । अथ तदनुध्यानमात्रेणागतः सकलसुरनिकरपरिवृतः वृत्राहितस्तत्पादपङ्कजं निजमुकुटमणिमरीचिमञ्जर्या पिञ्जरीकुर्वाणस्तदाज्ञावशेन शुभे मुहूर्ते तस्यायोध्यापुरस्य मध्ये महादिक्षु च रुचिविजितसुरमन्दिराणि जिनमन्दिरागि निर्मायादेवमातृकदेवमातृकसाधारणानूपजाङ्गलभेदानन्तपालपालितदुर्गपरिवृतान्, लुब्धकारण्यचरपुलिन्दशवरादिपरीक्षितान्तरालप्रदेशान्, काशीकोसलकलिङ्गवङ्गकरहाटककर्णाटक- ५ चोलकेरलमालवमहाराष्ट्र सौराष्ट्रवनवासद्रविडान्ध्रकाम्बोजवाल्हिकतुरुष्ककेदारसौवीरामीरचेदि . के कयशूरसेनापरान्तिकविदेहसिन्धुगन्धारकुरुजाङ्गलविदर्भवत्सावन्तीवनभेदपल्लवदशार्णकच्छमहा - कच्छमगधमगधरम्यकाश्मीरकुरुसौभद्रकादिविविधविषयान् तज्जनपदमध्यभागेषु परिखावप्रप्राकारगोपुराट्टालकालङ्कृतानि नानाविधनगराणि च ग्रामपुरखेटखवटादिकं च परिकल्पयामास । १३ ) पुराणि परिकल्पयन्नमुचिसूदनः सार्थकं पुरंदरसमाह्वयं दधदयं विभोः शासनात् । यथोचितपदेषु ता भुवि निवेश्य सर्वाः प्रजाः त्रिविष्टपमुपासदन्निखिललेखवर्गः समम् ॥८॥ पालिताः साधारणा: नदीमातृकदेवमातृकमिश्राः, अनूपा जलप्रायदेशाः, जाङ्गला निर्वारिदेशाः, ग्रामपुरखेटखर्वटादीनां लक्षणानि परिशिष्टे द्रष्टव्यानि । शेषं सुगमम् । $ १३ ) पुराणीति-विभोर्वृषभदेवस्य शासनात् १५ आज्ञायाः पुराणि नगराणि परिकल्पयन् रचयन् सार्थकमन्वितार्थ पुरंदरसमाह्वयं पुरंदरेति नाम दधत् जनोंकी जीविकाके लिए असि, मषी, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन छह कर्मोंकी व्यवस्था करनी चाहिए। निश्चयानुसार उन्होंने 'भयभीत मत होओ' इस प्रकारकी वाणीसे बार-बार आश्वासन दे कर इन्द्रका स्मरण किया। तदनन्तर उनके स्मरणमात्रसे समस्त देवसमूहसे परिवृत इन्द्र आ पहुँचा। अपने मुकुटमें लगे हुए मणियोंकी किरणरूप मंजरीके २० द्वारा भगवानके चरण कमलोंको पीतवर्ण करते हुए इन्द्रने उनकी आज्ञासे शुभमुहूर्त में उस अयोध्यानगरके बीच में तथा उसकी चारों महादिशाओंमें कान्तिसे इन्द्रभवनको जीतनेवाले जिन मन्दिरोंकी रचना की। तदनन्तर जो अदेवमातृक-नदी आदिके जलसे जीवित रहनेवाले, देवमातृक-वर्षाके जलसे जीवित रहनेवाले, साधारण-दोनों प्रकारके अनूप-अत्यधिक जलवाले, तथा जांगल-जलरहित भेदोंसे सहित थे, जो अन्तपाल–पहरेदारोंसे सुर- . क्षित दुर्गोंसे घिरे हुए थे, लुब्धक, अरण्यचर, पुलिन्द तथा शवर आदिके द्वारा जिनके भीतरी प्रदेशोंकी सदा परीक्षा की जाती थी ऐसे काशी, कोसल, कलिंग, वंग, करहाटक, कर्णाटक, चोल, केरल, मालव, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, वनवास, द्रविड, आन्ध्र, काम्बोज, वाह्निक, तुरुष्क, केदार, सौवीर, आभीर, चेदि, केकय, शूरसेन, अपरान्तिक, विदेह, सिन्धु, गन्धार, कुरुजांगल, विदर्भ, वत्स, अवन्ती, वनभेद, पल्लव, दशार्ण, कच्छ, महाकच्छ, मगध, रम्य, काश्मीर, कुरु और सौभद्रक आदि नाना देशोंकी और उन देशोंके मध्यभागोंमें परिखा, धूलिसाल, कोट, गोपुर तथा अट्टालकोंसे सुशोभित नाना प्रकारके नगर और ग्राम, पुर, खेट तथा खर्वट आदिकी रचना की। $१३ ) पुराणीति-भगवानकी आज्ञासे पुरोंनगरोंकी रचना करता हुआ जो पुरन्दर इस प्रकारके सार्थक नामको धारण करता था ऐसे १. मकुट क० । ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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