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________________ २५२ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [ ७६३$३) ते किल बाल्यादनन्तरे वयसि वर्तमाने विहारसदने मेधाविलासिन्याः, चन्द्रिके विनयाम्बुधेः, कुलसदने शोलसंपदां, सीमाभूते सौन्दर्यस्य, सकलमानवतीजननवनपात्रे, मृदुपादविन्यासेन पुरतः प्रकीर्णरक्ताम्बुजोपहारश्रियं व्यातन्वाने, नखमणिदर्पणसंक्रान्तनिजतनुलताच्छायाच्छलेन रूपसंपदा विनिर्जितं पादमुपाश्रितं दिक्कुमारीनिकरमिव दर्शयन्त्यौ, मदनसदनाग्रभागप्रसधूपधूमरेखामिव नाभिनिपानावतरणार्थभिन्द्रनीलमणिखचितसोपानपरम्परामिव, अगाधतरनाभिकूपखननधान्तेन वेधसा तन्निकटे क्षिप्तां खननशलाकामिव रोमराजिलतां बिभ्राणे, सद्भूपतिसभासंनिवेशभिव, सुमनोजनवादरणस्थानं, पद्माकरभिव सद्यस्तनकुड्मल शोभितं, सुरेन्द्रनन्दनवन - - - - किरन्त्यो प्रक्षिपन्त्यो ब्राह्मी सुन्दरी च इमे द्वे कन्ये समिती सभायां गुरोः पितुः समीपं निकट प्राप्ते गते । शार्दूलविक्रीडितछन्दः ॥१।। ६३ ) ते किलेति-ते किल कन्ये बाल्यात् शैशवात् अनन्तरे निकटगते वयसि १. दशायां वर्तमाने, मेवाविलासिन्या बुद्धिविलासिन्या विहारसदने क्रीडाभवने, विनयाम्बुधेविनयसागरस्य चन्द्रि के ज्योत्स्ने, शोलसंपदां शीलसंपत्तीनां कुलसदने कुलभवने, सौन्दर्यस्य लावण्यस्य सीमाभते अवधिभूते, सकलमानवतीजनस्य निखिलनारोनिकुरम्बस्य नवनपात्रे स्तुतिपात्रे, मृदुपादविन्यासेन कोमलचरणनिक्षेपेण पुरतोऽग्रे प्रकीर्णरक्ताम्बुजोपहारश्रियं प्रक्षिप्तकोकनदोपायनशोभा व्यातन्वाने कुर्वाणे, नखा नखरा एव मणिदर्पणा रत्नादस्तिष संक्रान्ता प्रतिफलिता या निजतनलता स्वशरीरवल्ली तस्याः छायानां प्रतिबिम्बानां छलेन व्याजेन रूपसंपदा सौन्दर्यसंपत्त्या विनिजितं पराभूतम् अतएव पादमुपाश्चितं चरणमुपगतं दिक्कुमारो निकरमिव काष्ठाकुमारीकदम्बकमिव दर्शयन्त्यौ प्रकटयन्त्यो, मदनसदनं वराङ्गमेव कामनिकेतनं तस्याग्रभागे प्रसरन्तो प्रसरणशीला या धूपधुमस्य धूपधूम्रस्य रेखा लेखा तामिव, नाभिनिपाने तुन्दिजलाशयेऽवतरणार्थ इन्द्रनीलमगिखचिता या सोपानपरम्परा निःश्रेणिसंततिस्तामिव, अगाधतरो गम्भीरतरो यो नाभिकृपस्तुन्दि प्रहिस्तस्य खननेनावदारणेन श्रान्तः क्लान्तस्तेन वेवसा विधात्रा तन्निकटे नाभिप्रहिसमीपे क्षिप्तां पातितां २० खननशलाकामिव लोहकुशीमिव रोमराजिलतां लोमरेखावल्लीं बिभ्राणे दधाने, सद्भूपतेः सन्नृपतेः सभासं निवेशमिव समिति सदनमिव सुमनोजस्य सुकामस्य यत् नवादरणं प्रत्यग्रप्रीतिस्तस्य स्थान पक्षे सुमनोजनानां शोभित थीं, जिनके चरणोंके निक्षेप रुनझुन करते हुए मनोहर नू पुरोंसे देदीप्यमान थे, जिनके नेत्र चकोरके समान थे, और जो अपने अंगोंसे आगे सुवर्णधूलिके सदृश कान्तिको बिखेर रही थीं ऐसी ब्राह्मी और सुन्दरी कन्याएँ सभामें अपने पिताके निकट पहुँची ॥१॥ $३) ते २५ किलेति-उस समय वे कन्याएँ बाल्यअवस्थाके बाद आनेवाली अवस्था में विद्यमान थीं, बुद्धिरूपी विलासिनीकी क्रीडागृह थीं, विनयरूप समुद्र के लिए चाँदनी थीं, शीलरूप सम्पत्तियोंके कुलभवन थीं, सौन्दर्यकी सीमास्वरूप थीं, समस्त स्त्रीसमूहकी स्तुतियोंकी पात्र थीं, कोमल चरणनिक्षेपसे आगे फैलाये हुए लालकमलोंके उपहारकी शोभाको विस्तृत कर रही थीं। उनके नखरूपी मणिमयदर्पणों में उन्हींके शरीरकी छाया पड़ रही थी जिससे वे ऐसी ३० जान पड़ती थीं मानो सौन्दर्य रूप सम्पत्तिके द्वारा पराजित होनेके कारण सेवाके लिए चरणोंमें आयी हुई दिक्कुमारियोंके समूहको ही दिखला रही हों, वे जिस रोमराजिरूपी लताको धारण कर रही थीं वह ऐसी जान पड़ती थी मानो काममन्दिरके अग्रभागमें फैलती हुई धूपसम्बन्धी धूमकी रेखा ही हो, अथवा नाभिरूपी जलाशयमें उतरनेके लिए निर्मित इन्द्रनील मणियोंसे खचित सीढ़ियोंकी ही परम्परा हो, अथवा बहुत गहरे नाभिरूपी कुएँको खोदनेसे ३५ थके हुए विधाताके द्वारा उसके निकट डाली हुई लोहकी कुशी ही हो। वे जिस वक्षःस्थलको धारण कर रही थीं वह किसी अच्छे राजाके सभास्थलके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार सभास्थल सुमनोजन-वादरणस्थान-विद्वज्जनोंके शास्त्रार्थरूपी युद्धका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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