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________________ पञ्चमः स्तबकः २११ गूढं क्षणं प्रकाशं च संचारयन्, क्षणमेकः, क्षणमनेकः, क्षणं व्यापी, क्षणमणुः, क्षणमदूरे, 'क्षणं दूरे, क्षणं दिवि, क्षणं भुवि, विलसमानः परितो नाट्यरसमुत्तरङ्गयामास । $ ४० ) तदा तादृङ्नाटये विलसति बलारातिकलिते भुजोल्लासक्षुभ्यज्जलदविगलद्वारिपृषताम् । सुरश्रेणोवृष्टप्रचुरकुसुमानां च पततां विशेषो विज्ञातो मधुकरवितत्या विततया ॥२४॥ $ ४१ ) अयं किल वज्रधरः पुरा शिलामयान्'रूपान्धरान्विभेद, अहं किल मृण्मयी स्त्रीरूपा घरेति भयेनेव, पुरंदरपरिचितेन क्लोबेनापि बहुधाचलेन नाटयेन पुंरूपा एव अचलाः कम्पिता अहं तु स्त्रीरूपाचलेति मत्वा किल काश्यपो तदा कम्पमाससाद । शक्रशरासनसंदेहम् अङ्करयन् प्रादुर्भावयन् । शेषं सुगमम् । ६ ४० ) तदेति-तदा तस्मिन् काले बलारातिकलिते १० पुरंदरविहिते तादृङ्नाटये तादृक्षनाट्ये विलसति शोभमाने सति भुजानां बाहूनामुल्लासेन समुन्नयनेन क्षुभ्यन्तः संचलन्तो ये जलदा मेघास्तम्यो विगलन्ति पतन्ति यानि वारिपषन्ति जलबिन्दवस्तेषां पततां स्खलता सुरश्रण्या देवपङ्क्त्या वृष्टानि यानि प्रचुरकुसुमानि प्रभूतपुष्पाणि तेषां च विशेषो वैशिष्ट्यं विततया विस्तृतया मधुकरवितत्या भ्रमरपङ्क्त्या विज्ञातः । येषामुपरि मधुकरविततिरधावत् तानि कुसुमानि तदितराणि च वारिपृषन्ति सन्तीति ज्ञातानित्यर्थः । शिखरिणीछन्दः ॥२४॥४,) अयमिति-अयं किल वज्रधरः पविधारक इन्द्रः १५ पुरा प्राक् शिलामयान् प्रस्तरमयान् पुंरूपान् पुंल्लिङ्गरूपान् घरान् पर्वतान् बिभेद खण्डयामास । अहं किल मृण्मयी मृत्तिकारूपा स्त्रीरूपा स्त्रीलिङ्गरूपा धरा पृथिवी, पुमपेक्षया स्त्रियाः कोमलत्वादिति भावः, इति भयेनेव भीत्येव, पुरंदरपरिचितेन प्राप्तपुरुहूत परिचयेन क्लीबेनापि नपुंसकलिङ्गेनापि पक्षे नपुंसकवत्कातरेणापि, बहुधाचलेन अतिचपलेन नाट्येन नटनेन पुंरूपा एव पुल्लिङ्गा एव अचलाः पर्वताः कम्पिता अहं तु स्त्रीरूपा अचला पृथिवी, इति मत्वा किल काश्यपी क्षितिः 'क्षाणिा काश्यपो क्षितिः' इत्यमरः । तदा ताण्डवनाट्य. २० करनेवाली अप्सराओंको क्षण भर गूढ़ रूपसे और क्षण भर प्रकट रूपसे चला रहा था। क्षण भरमें वह एक हो जाता था, क्षण भर में अनेक हो जाता.था, क्षणभरमें व्यापक हो जाता था, क्षण भर में अणुरूप हो जाता था, क्षण भरमें समीपमें, क्षण भरमें दूर, क्षण भरमें आकाशमें और क्षणभरमें पृथिवीपर अपनी चेष्टा दिखलाता हुआ सब ओर नाटयरसको बढ़ा रहा था। $४०) तदेति-उस समय इन्द्र के द्वारा किये हुए उस प्रकारके नाटयके सुशोभित होनेपर २५ भुजाओंके उल्लाससे क्षुभित मेघोंसे झड़नेवाली जलकी बूंदों और देवसमूहके द्वारा बरसाये हुए बहुत भारी फूलोंकी विशेषता विस्तारको प्राप्त भ्रमरोंकी पङ्क्तिसे जानी गयी थी ॥२४॥ $ ४१ ) अयमिति-वज्रको धारण करनेवाले इस इन्द्रने पहले शिलाओंसे तन्मय तथा पुंल्लिङ्ग रूपधारी धरों-पर्वतोंका भेदन किया था फिर मैं तो मिट्टीसे तन्मय और स्त्रीरूपको धारण करनेवाली धरा-पृथिवी हूँ मुझे तो यह अनायास ही खण्डित कर देगा इस भयसे ही ३० मानो उस समय पृथिवी काँपने लगी थी। अथवा यह नाटय यद्यपि बहुत चंचल है और नपुंसकलिङ्ग (पक्षमें नपुंसकके समान कातर ) है तो भी इन्द्रसे परिचित होनेके कारण इसने पुंल्लिङ्ग (पक्षमें पुरुषरूपके धारक) अचलों--पर्वतों ( पक्ष में विचलित न होनेवाले शूरों) को भी कम्पित कर दिया है फिर मैं तो स्त्रीरूपको धारण करनेवाली अचला-पृथिवी हूँ-मुझे कम्पित करने में इसे क्या देर लगेगी इस भयसे ही मानो उस समय पृथिवी कंपनको ३५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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