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________________ -३७ ] पश्चमः स्तबकः २०९ लोत्पलस्य भगवतो जिनराजस्य चरितमधिकृत्य प्रवृत्तं, प्रदीपमिव प्रकटितदशावतारं पाण्डुकवनमिव जन्माभिषेकसंगतम्, एकनेत्राञ्चितमपि सहस्रनेत्राञ्चितं किमपि रूपकमभिनेतु प्रवृत्तः कृतमङ्गलालंकारो मूर्तिमानिव नाट्यागमः कामिनोमिव सदामरालोसंनुतपदन्यासां सुवर्णालंकारशोभितां च मुक्तावलिमिव सुगुणां सुनामकां सद्वृत्तरत्नमण्डितां च, अनुपमामपि उपमाञ्चितां १० येन तथाभूतस्य भगवतः परमेश्वयंशालिनः जिनराजस्य जिनेन्द्रस्य चरितमुपाख्यानम् अधिकृत्याभिलक्ष्य प्रवृत्तं प्रारब्धं प्रदीपमिव प्रकृष्टदीपकमिव प्रकटिता दशावतारा यस्मिस्तत् पक्षे प्रकटितो दशानां वर्तिकानामवतारो यस्मिस्तम्, पाण्डुकवनमिव जन्माभिषेकेण संगतं पक्षे जन्माभिषेके संगतं प्राप्तं, एकनेत्रा एकनायकेनाञ्चितमपि शोभितमपि सहस्रनेत्रा बहुनायकैरञ्चितं शोभितमिति विरोधः परिहारपक्षे सहस्रं नेत्राणि यस्य स सहस्रनेत्र आखण्डलस्तेनाञ्चितं शोभितं किमपि वचनागोचरं रूपकं नाटकम् अभिनेतुं कर्तुं प्रवृत्तः समुद्यतः कृता धृता मङ्गलालंकारा येन तथाभूतः मूर्तिमान् शरीरो नाट्यागम इव नाट्यशास्त्रमिव कामिनोमिव भामिनीमिव सदा सर्वदा मरालीभिहंसीभिः संनुतः संस्तुतो मृदुपदन्यास : कोमलचरणनिक्षेपो यस्यास्तां नान्दीपक्षे सदा सर्वदा अमरालीभिर्देवपङ्क्तिभिः संनुतानां संस्तुतानां मृदुपदानां कोमलाक्षरसंघातानां न्यासो निक्षेपो यस्यां तयाभूतां, सुवर्णस्य काञ्चनस्य येऽलंकाराः कटकपूराद्याभरणानि तैः शोभितां समलंकृतां नान्दोपक्षे सुवर्णाः शोभनाक्षराणि अलंकारा उपमादयश्च तैः शोभितां, मुक्तावलिमिव महारयष्टिमिव सुगुणां प्रशस्तसूत्रां नान्दोपक्षे प्रशस्तमाधुर्यादिगुणां, सुनायकां सुष्ठुनायको मध्यमणि १५ नान्दीपक्षे सुष्ठुनायको नेता यस्यां तां 'नायको नेतरि श्रेष्ठे हारमध्यमणावपि' इति विश्त्रलोचनः । सद्वृत्तरत्नमण्डितां च सद्वृत्तानि प्रशस्तवर्तुलानि यानि रत्नानि तैर्मण्डितां शोभितां नान्दीपक्षे सद्वृत्तानि समीचीनछन्दास्येव रत्नानि तैर्मण्डितां शोभितां च, अनुपमामपि उपमारहितामपि उपमाञ्चितां उपमा २० रूपक प्रदीपके समान था, क्योंकि जिस प्रकार प्रदीप प्रकटितदशावतार - प्रकट किये हुए बत्तियों के अवतार से सहित होता है उसी प्रकार वह रूपक भी प्रकटितदशावतार - प्रकट किये हुए दश अवतारोंसे युक्त था । अथवा पाण्डुकवनके समान था क्योंकि जिस प्रकार पाण्डुकवन जन्माभिषेकसे संगत होता है उसी प्रकार वह रूपक भी जन्माभिषेकसे संगत था अर्थात् जन्माभिषेकके समय किया गया था। इसके सिवाय वह रूपक एक नायकसे सहित होकर भी हजार नायकोंसे सहित था ( पक्ष में इन्द्रसे सहित था ) | उस समय मंगलमय अलंकारोंको धारण करनेवाला वह इन्द्र ऐसा जान पड़ता था मानो शरीरधारी नाट्यशास्त्र ही हो । रूपकके प्रारम्भ में इन्द्रने उस नान्दीको किया जो कि स्त्रीके समान थी क्योंकि जिस प्रकार स्त्रीका कोमलपद निक्षेप सदा मराठी - हंसी से संस्तुत होता है उसी प्रकार उस नान्दीके भी कोमल शब्दसमूहका निक्षेप सदा अमराली - देवपङक्ति से संस्तुत था, जिस प्रकार स्त्री सुवर्णालंकारशोभिता - सोनेके आभूषणोंसे शोभित होती है उसी प्रकार वह नान्दी भी सुवर्णालंकारशोभिता -अच्छे अच्छे वर्ण और अलंकारोंसे सुशोभित थी । अथवा वह नान्दी मोतियोंकी मालाके समान थी; क्योंकि जिस प्रकार मोतियोंकी माला सुगुणा - अच्छे सूत्रसे सहित होती है उसी प्रकार वह नान्दी भी सुगुणा -- माधुर्य आदि उत्तम गुणोंसे सहित थी, जिस प्रकार मोतियोंकी माला सुनायका - अच्छे मध्यमणिसे सहित होती है उसी प्रकार वह नान्दी भी सुनायका - अच्छे नेतासे सहित थी, और जिस प्रकार मोतियोंकी माला सद्वृत्तरत्नमण्डिता- अच्छे गोलाकार रत्नोंसे सुशोभित होती है उसी प्रकार वह नान्दी भी सद्वृत्तरत्नमण्डिता - उत्तम श्रेष्ठ छन्दोंसे सुशोभित थी । वह नान्दी अनुपमा - उपमासे रहित होकर भी उपमाञ्चिता २७ Jain Education International ५ For Private & Personal Use Only २५ ३० ३५ www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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