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________________ २०२ [ ५६२४ $ २४ ) तदनु साकिल पुलोमजा भगवदङ्गसंगतजलकणगणं विमलदुकूलाञ्चलेन संमायं, त्रिभुवनतिलकस्य तस्य ललाटतटे तिलकं परिकल्प्य निसर्गरन्ध्रयोः श्रवणपुटयोः किमपि तत्त्वरहस्यमधिगन्तुमुपागतमिव शुक्रसुरगुरुयुगलं तस्यामानवचरितं तन्मुखस्य च महादर्शलीलां च प्रकटयितुमायातं सूर्यचन्द्रयुग्मं मणिकुण्डलद्वितयं संयोज्य, गलशङ्खगलितमुक्ताभिरिव मुखशशिना ५ राकासुधाकरं कलाचातुर्गुण्येन विजित्य वन्दीकृताभिरिव तत्प्रियाभिर्मुक्ताधिकसंपदमयमनुभविष्यतीति प्रकटयन्तीभिर्मोक्तिकपरम्पराभिर्घटितां कीर्तिलक्ष्मीभिर्मुक्तिलक्ष्मीभिरार्हन्त्यलक्ष्मीभिरिवाहमहमिकया समर्पितवरणमालात्रितयशङ्काकरीं त्रिगुणवलितमुक्कामालां कण्ठदेशे समर्प्य, पुरुदेव पृथ्वी छन्दः ॥१३॥ $ २४ ) तदन्विति — तदनन्तरं सा किल पुलोमजा शची भगवतो जिनेन्द्रस्याङ्गसंगताः शरीरस्थिता ये जलकणाः पयः पृषतास्तेषां गणं समूहं विमलदुकूलाञ्चलेन निर्मलक्षीमवस्त्रेण संमायं संप्रोक्ष्य, १० त्रिभुवनतिलकस्य त्रिजगच्छ्रेष्ठस्य तस्य भगवतो ललाटतटे निटिलतटे तिलकं स्थासकं परिकल्प्य रचयित्वा, निसर्गेण रन्ध्र छिद्रं ययोस्तयोः श्रवणपुटयोः कर्णाञ्चलयोः किमपि अनिर्वचनीयं तत्त्वरहस्यं तत्त्वगूढाभिप्रायम् अधिगन्तुं ज्ञातुम् उपागतं समीपागतं शुक्रसुरगुरुयुगलं भार्गवबृहस्पतियुगमिव तस्य भगवतः अमानवचरितं लोकोत्तरचरितं पक्षेमावास्यानवचरितं तन्मुखस्य च तद्वदनस्य च महादशैलीलां महादर्पणशोभां पक्षेऽमावास्यालीलां च प्रकटयितुम् आयातं समागतं चन्द्रसूर्ययुग्ममिव शशिसूर्ययुगलमिव मणिकुण्डलद्वितयं रत्नकर्णा१५ भरणयुगं संयोज्य संधृत्य, गल एव शङ्खो गलशङ्खः कण्ठकम्बुस्तस्माद् गलिताः पतिता या मुक्तास्ताभिस्तद्वत्, मुखशशिना वदनविधुना कलानां चातुर्गुण्यं तेन राकासुधाकरं पौर्णमासीन्दु मुखशशी चतुःषष्टिकलाधरः पौर्णमासीन्द्रश्च षोडशकलाघर इत्यर्थः, विजित्य वंदोकृताभि: काराघृताभिः तत्प्रियाभिस्तदीयवल्लभाभिः तारकाभिरिव तारकाततिभिरिव, अयं जिनेन्द्रनन्दनो मुक्ताभ्यो मुक्ताफलेभ्योऽधिका प्रभूता या संपद् तां पक्षे मुक्तानां सिद्धानामधिकसंपदम् अनुभविष्यतीति प्रकटयन्तीभिः मौक्तिकपरम्पराभिः मुक्ताफलसंततिभिः घटितां २० रचितां कीर्तिलक्ष्मीभिः यशः श्रोभिः, मुक्तिलक्ष्मोभिनिर्वृतिश्रोभिः, आर्हन्त्यलक्ष्मीभिरार्हन्त्यश्रीभिः इव अहमहमिका अहं पूर्वमहं पूर्वमिति भावेन समर्पितं यद् वरणमालात्रितयं स्वयंवरस्त्रत्रयं तस्य शङ्काकरी संशयोत्पादिकां त्रिगुणैस्त्रियष्टिभिर्वलिता या मुक्कामाला मौक्तिकयष्टिस्तां कण्ठदेशे ग्रीवाप्रदेशे समर्प्य संधृत्य, के लिए उद्यत हुईं इन्द्राणी हँसीका स्थान हुई थी ||१३|| $२४ ) तदन्विति -- तदनन्तर वह इन्द्राणी भगवान के शरीर में स्थित जलकणोंके समूहको निर्मल रेशमी वस्त्र के अंचलसे पोंछकर २५ आभूषण पहिनानेके लिए उद्यत हुई । सर्वप्रथम उसने तीन लोकके तिलकस्वरूप भगवान् के ३५ ललाट तटपर तिलक लगाया तदनन्तर स्वभावसे ही छिद्रयुक्त कानोंके पुटोंमें मणिमय कुण्डलोंकी जोड़ी पहिनायी । वह कुण्डलोंकी जोड़ी ऐसी जान पड़ती थी मानो तत्त्व के किसी अनिर्वचनीय रहस्यको जानने के लिए आये हुए शुक्र और बृहस्पतिकी ही जोड़ी हो। अथवा भगवान् के अमानवचरित - लोकोत्तर चरित्र ( पक्ष में अमावस्याका चरित) और उनके ० मुखकी महादर्श लीला - दर्पणकी शोभा ( पक्ष में अमावास्याकी शोभा ) को प्रकट करनेके लिए आये हुए चन्द्र और सूर्यकी जोड़ी ही हो । तत्पश्चात् उसने कण्ठ में तीन लड़ की मोतियों की माला पहिनायी । वह मोतियोंकी माला जिनमोतियोंकी परम्परासे निर्मित थी ऐसे जान पड़ते थे मानो कण्ठरूपी शंखसे निकले हुए मोती ही हों, अथवा चौगुनी कलाओंके कारण मुखरूपी चन्द्रमाके द्वारा पूर्णिमाके चन्द्रमाको जीतकर कैद की हुई उसकी प्रिया तारिकाएँ ही हों, अथवा यह मुक्ताधिकसंपदा - मोतियोंसे अधिक सम्पत्ति ( पक्ष में सिद्धपरमेष्ठीको अधिक सम्पत्ति ) का अनुभव करेगा यह सूचित ही कर रहे हों । माला तीन लड़की थी जिससे ऐसी जान पड़ती थी मानो कीर्तिरूपी लक्ष्मी, मुक्तिरूपी लक्ष्मी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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