SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमः स्तबकः १९७ - १५ ] दयति, धर्मामृतवर्षेण भव्यमानसस्य समुल्लासं करिष्यतीति च युक्तं तथाप्यसो पङ्कं नाशयति सदामराली संतोषं विशेषयति, चञ्चलानन्दं त्यजति, समुज्जृम्भितापं मेघाटोपं निर्मूलयति तथा स्वयमधःस्थितः सन् ऊर्ध्वं घनपुष्पवृष्टि संपादयिष्यतीति विचित्रघनाघनोऽयं सकलभुवनभृतामाधिपत्येऽभिषेक्तव्य इति मत्वा किल सुरेन्द्राः क्षीरवाराशिपयः पूरेण तमभ्यसिञ्चन् । 'हा' इति दुःखार्थमव्ययं पृथक्कृत्य निदाघं ग्रीष्मं शमयति शान्तं करोति, कीर्ति यशः पक्षे वृष्टिम् उत्पादयति, धर्म एवामृतं पीयूषं जलं वा तस्य वर्षेण वृष्टया भव्यानां भव्यजीवानां मानसं चित्तं तस्य पक्षे भव्यः श्रेष्ठश्चासौ मानसश्च तन्नामसरोवरश्चेति भव्यमानसस्तस्य समुल्लासं हर्षं पक्षे वृद्धि करिष्यतीति विधास्यतीति च युक्तम् योग्यम् । तथापि पूर्वोक्तप्रकारेण साम्ये सत्यपि असो जिनबालकवलाहकः पङ्कं कर्दमं नाशयति पक्षे पापं नाशयति 'पङ्कोऽस्त्री कर्दमे पापे' इति विश्वलोचनः सदा शश्वत् मरालीसंतोषं हंसीसंतोषं विशेषयति पक्षे सदा शश्वत् अमरालीं देवपङ्क्ति विशेषयति वर्धयति, चञ्चलाया विद्युत आनन्दं विलासं त्यजति पक्षे चञ्चलश्चा- १० सावानन्दश्चेति चञ्चलानन्दस्तं भङ्गुरानन्दं त्यजति, समुज्जृम्भितं वर्षितमापं जलसमूहो येन तथाभूतं मेघाटोपं मेघविस्तारं निर्मूलयति समुत्पाटयति पक्षे समुज्जृम्भी तापो दुःखं यस्मात्तथाभूतं मे मम अघाटोपं पापसमूहं निर्मूलयति, तथा स्वयम् स्वतः अधःस्थितः सन् नीचैःस्थितः पक्षे मध्यलोके स्थितोऽपि सन्नित्यर्थः ऊर्ध्वं उपरि गगन इति यावत् घनपुष्पस्य जलस्य वृष्टि 'घनपुष्पं मेघरसः' इत्यमरः पक्षे घना निबिडा चासो पुष्पवृष्टिश्चेति घनपुष्पवृष्टिस्तां संपादयिष्यति करिष्यतीति हेतोः विचित्रः प्रकृतघनाघनाद् विलक्षणश्चासौ घनाघनश्च मेघश्चेति १५ विचित्रघनाघनः अयं जिनबालकः सकलभुवनभृतां निखिलजलधराणां पक्षे निखिलजगत्पालकानाम् आधिपत्ये स्वामित्वे अभिषेक्तव्योऽभिषेकार्हः इति मत्वा किल सुरेन्द्राः क्षीरवाराशिः क्षीरसागरस्तस्य पयःपूरेण जल सुशोभित ) यह जिनबालकरूपी मेघ, हानिदाघ — हानिप्रद पापको ( पक्ष में ग्रीष्म ऋतु अथवा तीव्रसन्तापको ) शान्त करता है, कीर्ति - यश ( पक्षमें वृष्टि ) को उत्पन्न करता है और धर्मरूप अमृत ( पक्ष में जल ) की वर्षा से भव्यमानस - भव्यजीवोंके हृदय के उल्लासको २० ( पक्ष में सुन्दर मानसरोवरकी वृद्धिको ) करेगा यह ठीक है किन्तु उक्त प्रकार से समानता होनेपर भी यह पंक - कीचड़को नष्ट करता है जब कि दूसरा मेघ कीचड़को बढ़ाता है ( पक्ष में पापको नष्ट करता है ), सदा - मराली सन्तोष - सर्वदा हंसियोंके सन्तोषको विशिष्ट करता है - बढ़ाता है जब कि दूसरा मेघ हंसियोंके सन्तोषको नष्ट करता है ( पक्ष में सदा अमरालीसन्तोष - सदा देवपंक्तियोंके सन्तोषको विशिष्ट करता है, २५ चंचलानन्द — बिजलीके आनन्दको छोड़ता है जब कि दूसरा मेघ बिजली के आनन्दको धारण करता है ( पक्ष में चंचल - क्षणभंगुर आनन्दको छोड़ता है, समुज्जृम्भितापं मेघाटोपंजलसमूहको धारण करनेवाले मेघोंके विस्तारको निर्मूल करता है जब कि दूसरा मेघ उस प्रकारके मेघों के विस्तारको धारण करता है ( पक्षमें सन्तापको देनेवाले मेरे • पाप समूहको निर्मूल करता है ), तथा स्वयं नीचे स्थित होता हुआ भी ऊपर जलवृष्टिको करता है जब कि ३० दूसरा मेघ ऊपर स्थित होकर नीचेकी ओर जलवृष्टि करता है ( पक्षमें नीचे स्थित रहकर भी ऊपर आकाशसे अत्यधिक पुष्पवृष्टिको कराता है), इस प्रकारसे यह जिनबालक विचित्र मेघ है- - अन्य मेघोंसे विलक्षणता रखता है इसलिए समस्त भुवनभृत् — जलधर अर्थात् मेघोंके आधिपत्य में ( पक्षमें समस्त राजाओंके स्वामित्व में ) यही अभिषेक करने योग्य है ऐसा मानकर ही मानो इन्द्रोंने क्षीरसागर के जलप्रवाहसे उसका अभिषेक किया ३५ Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy