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________________ पञ्चमः स्तबकः १९५ युगलव्यामुक्तमुक्ताहारकान्तिझरी तच्छिरसि पततीति विद्याधरनिकरेणोत्प्रेक्ष्यमाणा, वदनरुचि - यशोवैशद्याभ्यां विजितयोः सेवार्थमागत्य नभसि संनिहितयोर्जम्बूद्वीपसंगतयोः सुवर्णवर्णभगवद्दिव्यदेहकान्तिसंक्रान्तिवशेनारक्तमण्डलयोः शशाङ्कयोबिम्बयुगलान्निःसरन्ती कौमुदीति पश्यतां मति जनयन्ती, अयं किल जिनार्भकः परमहिमाञ्चितः, सर्वसुपर्वजनसेव्यमानपादो, महीधरसानुचरविद्याधरपरिवृतः, सकलदिगम्बरोन्नतः स हिमालयो गिरीश इति मत्वा समापतन्ती सुरस्रवन्तीव ५ च व्यराजत । -१२ ] लक्ष्म्याः पाण्डुकवनश्रियाः कनककुम्भावेव कुचो स्तनौ तयोर्युगले व्यामुक्तो धृतो यो मुक्ताहारस्तस्य कान्तिशरी दीप्तिप्रवाहः तच्छसि जिनार्भकमस्तके पततीति विद्याधरनिकरेण खेचरसमूहेन उत्प्रेक्ष्यमाणा तर्क्यमाणा, वदनरुचिश्च मुखकान्तिश्च यशोवैशद्यं च कीर्तिनैर्मल्यं चेति वदनरुचियशोवैशद्ये ताभ्यां विजितयोः पराजितयोः अतएव सेवार्थं शुश्रूषार्थम् यागत्य नभसि गगने संनिहितयोनिकटस्थयोः जम्बूद्वीपसंगतयोर्जम्बूद्वीपसंबन्धिनोः १० सुवर्णवर्णी हेमद्युतिर्यो भगवद्दिव्यदेहो जिनेन्द्रकमनीय कायस्तस्य या कान्तिर्दीप्तिस्तस्याः संक्रान्तिवशेन संमिश्रणवशेन आरक्तं मण्डलं बिम्बं ययोस्तयोः शशाङ्कयोश्चन्द्रमसो : बिम्बयुगलात् मण्डलद्वयात् निःसरन्ती निष्पतन्ती कौमुदी चन्द्रिका इतीत्थं पश्यतामवलोकमानानां मति बुद्धि जनयन्ती समुत्पादयन्ती, अयं किल जिनार्भको जिनेन्द्र शिशुः स प्रसिद्धो हिमालयो हिमालयनामधेयो गिरीश इति मत्वा समापतन्ती सुरस्रवन्तीव च गङ्गानदीव च व्यराजत व्यशोभत । अथ जिनार्भक हिमालययोः सादृश्यमाह - परमहिमाञ्चितः - परश्चासौ १५ महिमा च परमहिमा उत्कृष्टप्रभावस्तेन अञ्चितः शोभितो जिनार्भकः, परमहिमेन प्रभूतप्रालेयेन अञ्चितः शोभितो हिमालयः, सर्व सुपर्व जन सेव्यमानपादः – सर्व सुपर्वजनेन निखिलदेवंसमूहेन सेव्यमानी पादौ चरणी पक्षे सेव्यमानाः पादाः प्रत्यन्तपर्वता यस्य तथाभूतः, महीधरसानुचरविद्याधरपरिवृतः - महीधरा राजानः, सानुचरा अनुचरसहिता विद्याधराः खेचराः महीधराश्च ते सानुचरविद्याधराश्चेति महीधरसानुचरविद्याधराः ससेवक विद्याधरभूपालास्तैः परिवृतः परिवेष्टितः, अथवा महीधराश्च भूमिगोचरा राजानश्च सानुचरविद्या- २० धराश्चेति द्वन्द्वस्तैः परिवृतो जिनार्भकः पक्षे महीधरस्य विजयार्धपर्वतस्य सानुषु शिखरेषु चरन्ति गच्छन्तीति महीधरसानुचरास्तथाभूता ये विद्याधरास्तैः परिवृतः सकलदिगम्बरोन्नतः समग्रदिगम्बरमतानुयायिषून्नतः श्रेष्ठो जिनार्भकः पक्षे सकलदिक्षु निखिलाशासु अम्बरे गगने च उन्नतः समुत्तुङ्गः गिरीशः गिरां वाचाम् ईशः स्तनयुगल पर धारण किये हुए मुक्ताहारकी कान्तिका झरना क्या जिनबालकके शिरपर पढ़ रहा है इस तरह विद्याधर समूहकी उत्प्रेक्षाका विषय बन रही थी । कभी मुखकी कान्ति और २५ यशकी निर्मलता से पराजित होनेके कारण सेवाके लिए आकर आकाश में स्थित एवं सुवर्णके समान आभावाले भगवान् के सुन्दर शरीर सम्बन्धी कान्तिके सम्मिश्रणसे लाल-लाल दिखनेवाले जम्बूद्वीप सम्बन्धी दो चन्द्रमाओंके बिम्बयुगलसे गिरती हुई चाँदनी है इस प्रकार देखनेवालोंको बुद्धि उत्पन्न कर रही थी और कभी, यह जिनबालक प्रसिद्ध हिमालय नामका पर्वत है क्योंकि जिस प्रकार जिनबालक परमहिमांचित - उत्कृष्ट महिमासे सुशोभित है ३० उसी प्रकार हिमालय भी परमहिमांचित - उत्कृष्ट बर्फसे सुशोभित है, जिस प्रकार जिनबालक सर्व सुपर्वजनसेव्यपाद- - समस्त देवसमूह से सेवनीय पादों - चरणोंसे युक्त है उसी प्रकार हिमालय भी समस्त देवसमूहसे सेवनीय पादों - प्रत्यन्त पर्वतोंसे सहित है, जिस प्रकार जिनबालक महीधरसानुचरविद्याधरपरिवृत - भूमिगोचरी राजा तथा सेवकों सहित विद्याधर राजाओंसे घिरा हुआ है उसी प्रकार हिमालय भी पर्वत के शिखरोंपर चलनेवाले ३५ विद्याधरों से घिरा है, जिस प्रकार जिनबालक सकलदिगम्बरोन्नत - समस्त दिगम्बर मतानुयायियोंमें उन्नत - श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार हिमालय भी समस्त दिशाओं और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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