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________________ १९२ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [ ५६७स्थितिसंपन्नः, परिस्फुरद्रत्नमण्डितश्चञ्चमिकोज्ज्वलः समुद्रश्च, किंतु नदेशविख्यातो देशविख्यातो, नवसुधाविभवहेतुर्वसुधाविभवहेतुः, नक्षत्रपबन्धुः क्षत्रपबन्धुः, गरोल्लासनिदानं नगरोल्लासनिदानं, रसहितो नरसहित इति विशेषः । तथाभूतः क्षीरसागरः पक्षे अतिशोभनस्य क्रमस्य कर इत्यतिशोभनक्रमकरः साधुरीतिप्रवर्तकः सर्वतोमुखं ५ जलमेव संपद् तया आढयः सहितः क्षीरसागरः पक्षे सर्वतोमुखी समन्तादायान्ती या संपत् तया आढयः, सुष्ठु अर्णः स्वर्णः सुजलं तस्य स्थित्या संपन्नः क्षीरसागरः पक्षे स्वर्णस्य हेम्नः स्थित्या संपन्नः सहितः, परिस्फुरद्धिर्देदीप्यमान रत्नैर्मण्डितः क्षीरसागरः पक्षे देदीप्यमानाभरणखचितरत्नरलंकृतः, चञ्चन्त्यः शोभमाना या ऊर्मिका लहर्यस्ताभिरुज्ज्वलः क्षोरसागरः पक्षे चञ्चन्तीभिरूमिकाभिरङ्गल्याभरणरुज्ज्वलः, समुद्रश्च समुद्रनामधेयश्च पक्षे मुद्रया सहितः समुद्रः । अथ तयोविशेष दर्शयति-क्षीरसागरः नदेशविख्यातः न देशेषु जनपदेषु विख्यातः प्रसिद्ध इति नदेशविख्यातः, भुवनपतिस्तु देशविख्यात इति विशेष: पक्षे नदानामीशो नदेशस्तथा विख्यातः क्षीरसागरः । क्षीरसागरो न वसुधायाः पृथिव्या विभवस्य हेतुः भुवनपतिस्तु वसुधा विभवहेतुः पृथिवीविभवहेतुरिति विशेषः पक्षे क्षीरसागरो नवसुधायाः प्रत्यग्रपीयूषस्य यो विभवस्तस्य हेतुः क्षीरसागरः नक्षत्रपाणां राज्ञां बन्धुहितकरः भुवनपतिस्तु क्षत्रपाणां बन्धुरिति विशेषः पक्षे क्षीरसागरो नक्षत्रपस्य चन्द्रस्य बन्धुः । क्षीरसागरः गरस्य विषस्य य उल्लासस्तस्य निदानं भुवनपतिस्तु तथा न भवतीति नगरोल्लासनिदानमिति विशेषः पक्षे भुवनपतिः नगराणां पुराणामुल्लासस्य हर्षस्य निदानम् । क्षीरसागरः रसहितः रसेन जलेन हितो हितकर्ता आसीत् भुवनपतिस्तु न तथासोदिति विशेषः पक्षे नरैः सहित इति भुवनपति-जलका पति था, जिस प्रकार राजा अतिशोभनक्रमकर---अत्यन्त शोभायमान परिपाटीको करनेवाला होता है उसी प्रकार क्षीरसमुद्र भी अतिशोभनक्रमकर-अत्यन्त शोभायमान नाकू और मगरोंसे सहित था, जिस प्रकार राजा सर्वतोसुखसंपदाढय-सब २० ओरसे आयवाली सम्पत्तिसे सहित होता है उसी प्रकार क्षीरसागर भी सर्वतोमुखसम्प दाढ्य-जलरूपी सम्पत्तिसे सहित था, जिस प्रकार राजा स्वर्ण स्थितिसम्पन्न-सुवर्णकी स्थितिसे सम्पन्न होता है उसी प्रकार क्षीरसागर भी सुन्दर जलकी स्थितिसे सम्पन्न था, जिस प्रकार राजा परिस्फुरद्रत्नमण्डित-देदीप्यमान रत्नोंसे सुशोभित होता है उसी प्रकार क्षीरसागर भी चारों ओर चमकते हुए रत्नोंसे मण्डित था, जिस प्रकार राजा चंचदूर्मि२५ कोज्ज्वल-शोभायमान अँगूठियोंसे सुशोभित होता है उसी प्रकार क्षीरसागर भी चंचदुर्मि कोज्ज्वल-सुन्दर लहरोंसे सुशोभित था, और जिस प्रकार राजा समुद्र-मुद्रासे सहित होता है उसी प्रकार क्षीरसागर भी समुद्र-समुद्र नामधारी था इस तरह दोनों में समानता थी परन्तु राजा तो देशविख्यात-देशोंमें प्रसिद्ध होता है पर क्षीरसमुद्र नदेशविख्यात देशोंमें प्रसिद्ध नहीं था । पक्षमें नदों-बड़ी-बड़ी नदियोंके स्वामी रूपसे विख्यात था। राजा ३० वसुधाविभवहेतु-पृथिवीके वैभवका कारण होता है परन्तु क्षीरसागर नवसुधाविभवहेतु पृथिवीके विभवका हेतु नहीं था ( पक्षमें नवीन अमृतके विभवका हेतु था)। राजा क्षत्रपबन्धु-श्रेष्ठ क्षत्रियोंका हितकारी होता है परन्तु क्षीरसागर नक्षत्रपबन्धु-श्रेष्ठक्षत्रियोंका हितकारी नहीं था ( पक्ष में चन्द्रमाका बन्धु था)। क्षोरसागर गरोल्लासनिदान-विषके उल्लासका कारण होता है परन्तु राजा नगरोल्लासनिदान-विषके उल्लासका कारण नहीं था ३५ ( पक्षमें नगरोंके हर्षका कारण था) क्षीरसागर रसहित-जलसे हितकारी होता है परन्तु राजा नरसहित-जलसे हितकारी नहीं था (पक्षमें मनुष्योंसे सहित था) यह दोनोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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