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________________ -६७ ] चतुर्थः स्तबकः १६९ ६६६ ) सा किल साकेतपुरी सुरतरुकुसुममेदुरतया विधृतविमलदुकूलेव, नभोऽङ्गणनिपतितचिरत्नरत्नरुचिरतया मणिभूषणमण्डितेव, मलयजरससंसिक्ताङ्गो तत्र तत्र कल्पितविचित्रमुक्तामयरङ्गवल्लीविशोभिततया व्यामुक्तमुक्तामालिकेव, प्रतिनिलयं लयविलसितगानविलासमनोरमतया स्वयं गायन्तोव, समुल्लसत्पल्लवतल्लजसंदानितवन्दनमालासुन्दरतया निजानुरागधारां प्रकटयन्तीव, व्यालोलसमुल्लसदुदस्तकेतुहस्ततया जिनजन्मोत्सवकुतूहलेन नृत्यन्तीव चिरतरं ५ चकासामास । ६६७) जिनस्त्रिलोकीजनवन्धपादो जगद्गुरुः सोऽयमजायतात्र । इतोव सत्केतुपटावृतां तां पुरों न पस्पर्श रविः स्वपादैः ॥४६॥ $4) सा किलेति-सा किल साकेतपुरी अयोध्यापुरी सुरतरुकुसुमैः कल्पवृक्षपुष्पैर्मेदुरतया विधृतं परिहितं विमलदुकूलं निर्मलक्षीमं यया तथाभूतेव, नभोऽक्षणाद् गगनचत्वरात निपतितानि वृष्टानि यानि चिरत्नरत्नानि १० श्रेष्ठमणयस्तै रुचिरतया शोभिततया मणिभूषण रत्नालङ्कारैर्मण्डितेव शोभितेव, मलयजरसेन चन्दनरसेन संसिक्तमङ्गं यस्यास्तथाभूता, तत्र तत्र विविधस्थानेषु कल्पिता रचिता विधिना विविधप्रकारा या मुक्कामयरङ्गवल्ल्यस्ताभिर्विशोभिततया व्यामुक्ता धृता मुक्तामालिका यया तथाभूतेव, प्रतिनिलयं प्रतिगृहं लयविलसितो लयशोभितो यो गानविलासस्तेन मनोरमतया मनोज्ञतया स्वयं स्वतो गायन्तीव गानं कुर्वन्तोव, समुल्लसद्भिः शुम्भद्भिः पल्लवतल्लजैः श्रेष्ठकिसलयैः संदानिता बद्धा या वन्दनमाला वन्दनस्रजस्ताभिः सुन्दरतया १५ निजानरागस्य धारा संततिस्तां प्रकटयन्तीव, व्यालोलाश्चपलाः समुल्लसन्तः समुदस्ता: समुन्नोताः केतवः पताका एव हस्ता यया तस्या भावस्तया जिनजन्मोत्सवस्य कुतूहलं कौतुकं तेन नृत्यन्तीव नृत्यं कुर्वाणेव चिरतरं दीर्घकालपर्यन्तं चकासामास शुशुभे । उत्प्रेक्षा । ६६७ ) जिन इति–त्रिलोकीजनैर्वन्द्यौ पादो चरणो यस्य तथाभूतः, जगतां गुरुर्जगद्गुरुः जगच्छष्ठः सोऽयं लोकोत्तरमहिममहितः जिनो जिनेन्द्रः अत्र अजायत समुत्पन्न इतीव हेतोः सत्केतुपटावृतां सद्वैजयन्तीवस्त्रावृतां पुरी नगरों रविः सूर्यः स्वपादैः स्वचरणैः पक्षे २० स्वदोधितिभिः ‘पादोऽस्त्रो चरणे मूले तुरोयांशेऽपि दोधितो' इति विश्वलोचनः । श्लेषोत्प्रेक्षे । उपेन्द्रवज्रा शान्त कर रही है इस विचारसे ही मानो उस समय आकाश लक्ष्मीने मेघोंके विस्तारसे रहित अत्यन्त निर्मल तथा सुन्दर रूपको धारण किया था ॥४५॥ ६६६) सा किलेति-उस समय वह अयोध्यापुरी कल्पवृक्षके फूलोंसे व्याप्त होनेके कारण ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने स्वच्छ रेशमी वस्त्र ही पहिन रखा हो, आकाश रूप आँगनसे पड़े हुए श्रेष्ठ रत्नोंसे सुन्दर होने- २५ के कारण ऐसी मालूम होती थी मानो रत्नोंके आभूषणोंसे सुशोभित ही हो रही हो, चन्दन रसके छिड़कावसे ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने चन्दनका लेप ही लगा रखा हो, जहाँतहाँ बनाये हुए रंग-बिरंगे मोतियोंके बेलबूटोंसे सशोभित होनेके कारण ऐसी प्रतिभासित होती थी मानो उसने मोतियोंकी मालाएँ ही पहिन रखी हो, प्रत्येक घरमें होनेवाले लयसे सुशोभित संगीतसे मनोरम होने के कारण ऐसी जान पड़ती थी मानो स्वयं गा ही रही हो, ३० लहलहाते श्रेष्ठ पल्लवोंसे निर्मित वन्दनमालाओंसे सुन्दर होनेके कारण ऐसी मालूम होती थी मानो अपने अनुरागकी सन्तति ही प्रकट कर रही हो और फहराती हुई पताकाओं रूप हाथोंको ऊपर उठानेके कारण ऐसी जान पड़ती थी मानो जिनेन्द्र भगवान्के जन्मोत्सवके कुतूहलसे नृत्य ही कर रही हो। ६ ६७ ) जिन इति-जिनके चरण तीन लोकके मनुष्योंके द्वारा वन्दनीय हैं ऐसे जगद्गुरु भगवान् जिनेन्द्रने यहाँ जन्म प्राप्त किया है इस कारण ही ३५ मानो उत्तम पताकाओंसे घिरी हुई उस नगरीको सूर्यने अपने चरणोंसे ( पक्ष में किरणोंसे ) २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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