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________________ -६२ ] चतुर्थः स्तबकः १६७ वनाधिपतिरिति मत्वा किल निजानुरागं प्रकटयन्तीव मन्दहासमातन्वतीव, पुलाकमुकुलानि बिभ्राणेव, आनन्दाश्रुबिन्दून्मुञ्चतीव हर्षवशेन नयने विस्तारयन्तीव, मलयजरजोराजि किरन्तीव विरराज। $६१ $ शम्बरारिमदभेदनधीरो जात एष इति तोषविशेषात् । शम्बराणि सह सज्जनचित्तैः संप्रसादमुपजग्मुरुदारम् ॥४१।। ६६२ ) प्रौढशोभनखरांशुवैभवो जात एष जिनचण्डदोधितिः । इत्यवेत्य किल लज्जया तदा मन्दितोष्णकिरणोऽभवद्रविः ।।४।। लोध्राणि लोध्रकुसुमानि एषां द्वन्द्वः तैविंशोभमाना विराजमाना बनमेदिनीकामिनी काननवसुधाभामिनी संजातः समुत्पन्नः अयमेष भुवनाधिपतिस्त्रिलोकीनाथः विभुतया समर्थतया पक्षे विगतभुवर्णतया वनाधिपतिः वनस्वामी यो भुवनाधिपतिः स सामर्थ्यन वनाधिपतिरस्त्येव, यो भुवनाधिपतिः स भुवणं त्यक्त्वा वनाधिपति- १० वः, इतोत्थं मत्वा विज्ञाय किल निजानरागं निजप्रीत्यतिभार प्रकटयन्तीव दर्शयन्तीव विकसदशोककुसुमच्छलेनेति भावः, मन्दहास मन्दहसितम आतन्वतीव विस्तारयन्तीव विकचमल्लिकाकुन्दकुडपलव्याजेनेति भावः, पुलकमुकुलानि रोमाञ्चकुड्मलानि बिभ्राणेव दधानेव विकसितकदम्बकुसुमकपटेनेति भावः, आनन्दाश्रुबिन्दून् हर्षाश्रुपृषताः मुञ्चन्तीव त्यजन्तीव नन्ददरविन्दरसैरिति भावः, हर्षवशेन प्रमोदवशेन नयने नेत्रे विस्तारयन्तीव वितन्वन्तीव विकसितसिन्दूवारव्याजेनेति भावः, मलयजरजोराजि चन्दनपरागपति किरन्तीव प्रक्षिपन्तीव प्रबुद्धलोध्रपरागच्छलेनेति भावः दिरराज शुशुभे । श्लेषोत्प्रेक्षा । ६६.) शम्बरारिरिति-जातः समुत्पन्न एष जिनबालकः शम्बरारिमनसिजो जलशत्रुश्च तयोर्मदभेदने गर्वविध्वंसने धीरो निपुणस्तथाभूत इति तोषविशेषाद् हर्षविशेषात् शम्बराणि जलानि सज्जनचित्तः साधुहृदयैः सह उदारं महान्तं संप्रसाद नैर्मल्यं प्रसन्नतां च उपजग्मुः प्रापुः । 'शम्बरारिमनसिजः कुसुमेषुरनन्यभूः', 'अम्भोऽर्णस्तोयपानीयनीरक्षीराम्बुशम्बरम्' इति चामरः । श्लेषसहोक्तो । स्वागताछन्दः ।।४१॥ ६ ६२ ) प्रौडेति--प्रौढशोभं प्रकृष्टशाभायुक्तं २० नखरांशुवैभवं नखकिरणैश्वर्यं यस्य तथाभूतः, पक्षे प्रौढशोभनं खरांशुवैभवं तीक्ष्णकिरणैश्वर्यं यस्य तथाभूतः एष जिन एव चण्डदीधितिजिनचण्डदीधिति: जिनेन्द्रसूर्यः जातः समुत्पन्न इतीत्थम् अवेत्य ज्ञात्वा किल लज्जया मन्दाक्षेण तदा जिनजन्मकाले रविः सूर्यः मन्दिता उष्णकिरणा यस्य तथा भूतः अभवद् । श्लेष-रूपकोत्प्रेक्षाः । छोड़ देनेसे ) वनाधिपति-वनके स्वामी हैं ऐसा मानकर खिले हुए अशोकके लाल-लाल फूलोंसे वह ऐसी जान पड़ने लगी मानो अपना अनुराग ही प्रकट कर रही हो, खिले हुए २५ । जुही तथा कुन्द कुंडलोंसे ऐसी मालूम होने लगी मानो मन्द हास्यको ही विस्तृत कर रही हो, कदम्ब पुष्पोंसे ऐसी सुशोभित हो मानो रोमांचको ही धारण कर रही हो, कमल रससे ऐसी जान पड़ने लगी मानो हर्षके आँसू ही छोड़ रही हो, विकसितसिन्दुवारनिर्गुण्डीके फूलोंसे ऐसी लगने लगी मानो हर्षसे नेत्रोंको विस्तृत ही कर रही हो और खिले हुए लोध्रकी परागसे ऐसी सुशोभित हो उठी मानो चन्दन धूलिके समूहको ही उड़ा रही हो। ३० ६६१) शम्बरारीति-यह जो बालक उत्पन्न हुआ है वह शम्बरारि-कामका गर्व नष्ट। करने में (पक्षमें जलके शत्रुओंका गर्व चूर्ण करनेमें ) धीर वीर है इस प्रकारके संतोष विशेषसे शम्बर-जल, सज्जनोंके हृदयोंके साथ-साथ बहुत भारी प्रसन्नताको ( स्वच्छताको ) प्राप्त हो गये थे ॥४१॥ ६ ६२ ) प्रौढेति-जिसकी नख किरणोंका वैभव अत्यधिक शोभासे युक्त है ( पक्षमें जिसकी तीक्ष्ण किरणोंका वैभव अत्यधिक शोभायमान है ) ऐसा यह जिनेन्द्ररूपी ३५ सूर्य उत्पन्न हुआ है ऐसा जानकर उस समय लज्जासे ही मानो सूर्यकी उष्ण किरणें मन्द पड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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