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________________ -११५ ] तृतीयः स्तबकः १३७ हिमकरोऽपि परिशोभितमीन इति, मृगकृत्तिकावशेषोऽपि परिलसितसितांशुक इति, नक्षत्राधिपोऽपि राजेति, जडस्वभावोऽपि जडध्युत्पन्नोऽपि कलानिधिरिति, भश्रीकरोऽपि नभःश्रीकर इति, स पुनर्वसुवर्गशोभितोऽपि स्वातिसमृद्धिविराजितोऽपि पूर्वाशावशेन शुभोदयभूभृत्सेवा दिने दिने करोतीति परस्परविरुद्धार्थ प्रकटयतीति नोपमानभावमर्हति। विरुद्धं पक्षे हिमरूपाः कराः किरणा यस्य तथाभूतोऽपि परिशोभितो मीनो मीनराशिर्यस्य तथाभूतः अथवा ५ परिशोभिनी या तमी रात्रिस्तस्या इनः स्वामी। मृगकृत्तिका मृगचर्मैव अवशेषो यस्य तथाभूतोऽपि परिलसितं शोभितं सितांशुकं श्वेतवस्त्रं यस्य तथाभूत इति विरुद्ध पक्षे मृगो मृगशिरा नक्षत्रं कृत्तिका कृत्तिकानक्षत्रं मृगश्च कृत्तिका चेति मृगकृत्तिके ते अवशेषो यस्य तादृशोऽपि परिलसिताः परितो विभ्राजमानाः सिताः शुक्ला अंशवः किरणा यस्य तथाभूत इति । क्षत्राणामधिपो न भवतीति नक्षत्राधिपस्तथाभूतोऽपि राजा नपतिरिति विरुद्धं पक्षे नक्षत्राणां ताराणामधिपो नक्षत्राधिपस्तादृशोऽपि सन् राजा चन्द्रः 'राजा प्रभो नृपे चन्द्रे यक्षे १० क्षत्रियशक्रयोः' इति शब्दार्णवः । जडो मूर्खः स्वभावो यस्य तथाभूतोऽपि जडघीमूर्खस्तस्मादुत्पन्नोऽपि कलानां चातुरीणां निधि: कलानिधिरिति विरुद्ध पक्षे डलयोरभेदात् जलस्य स्वभाव इव स्वभावो यस्य तथाभूतो जलस्वभावः शीतलोऽपि जलधिः समुद्रस्तस्मादुत्पन्नोऽपि कलानां षोडशकलानां निधिरिति कलानिधिश्चन्द्रः । भानां नक्षत्राणां श्रियं करोतीति भश्रीकरस्तथाभूतोऽपि भश्रोकरो न भवतीति नभश्रीकर इति विरुद्ध पक्ष भश्रोकरोऽपि नक्षत्रश्रोकरोऽपि नभसो गगनस्य श्रियं करोतीति नभःश्रीकर इति । स पुनः पूर्णचन्द्रो १५ वसुवर्गशोभितो धनसमूहशोभितोऽपि स्वस्य धनस्य अतिसमृद्धिः प्रभूतवृद्धिस्तया विराजितोऽपि पूर्वा प्राक्तनी या आशा तृष्णा तस्या वशेन निघ्नतया शुभः प्रशस्त उदयो भाग्यं यस्येति शुभोदयः शुभोदयश्चासो भूभृच्चेति राजा चेति शुभो दयभूभृत् तस्य सेवां शुश्रूषां दिने दिने प्रतिदिनं करोति इति विरुद्ध पक्षे पुनर्वसुवर्गेण पुनर्वसुनक्षत्राभ्यां शोभितोऽपि स्वातेः स्वातिनक्षत्रस्य अतिसमृद्धया प्रचुरशोभया विराजितोऽपि पूर्वाशाया पूर्वदिशाया वशेन शुभश्चासौ उदयभूभृच्चेति शुभोदयभूभृत् प्रशस्तोदयाचलस्तस्य सेवा दिने दिने २० अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रोंका पति होकर भी शत-शतभिषा नक्षत्रका पति है) हिमकरोऽपि-मगर होकर भी शोभायमान मीन-मत्स्य है अथवा मकर राशिसे युक्त होकर भी मीन राशिसे सहित है यह विरुद्ध बात है। (पक्षमें हिमकर-शीतल किरणोंवाला होकर भी मीनराशिसे सुशोभित है अथवा शोभायमान तमी-रात्रिका इन स्वामी है)। मृग-कृत्तिका विशेष-मृगचर्ममात्रसे युक्त होकर भी शोभायमान सफेद वस्त्रसे सहित है, यह विरुद्ध बात है २५ (पक्षमें मृगशिरा और कृत्तिका नक्षत्रसे युक्त होकर भी शोभायमान सफेद किरणोंवाला है)। क्षत्रों-क्षत्रियोंका अधिपति न होकर भी राजा है यह विरुद्ध बात है ( पक्षमें नक्षत्रोंका अधिपति होकर भी राजा-चन्द्रमा है) जडस्वभाव-मूर्ख स्वभाववाला तथा जडधी-मूर्खसे उत्पन्न होकर भी कलानिधि चतुराइयोंका निधि है यह विरुद्ध बात है (पक्ष में जल स्वभावजलके समान शीतल स्वभाववाला और जलधि--समुद्रसे उत्पन्न होकर भी सोलह कलाओं- ३० का निधि है)। भश्रीकर-नक्षत्रोंकी शोभाको करनेवाला होकर भी नभश्रीकर-नक्षत्रोंकी शोभाको करनेवाला नहीं है यह विरुद्ध बात है ( पक्षमें नक्षत्रोंकी शोभाको करनेवाला होकर भी नभःश्रीकर-आकाशकी शोभाको करनेवाला है)। फिर वह चन्द्रमा वसुवर्गशोभितोऽपि-धनके समूहसे शोभित तथा स्वातिसमृद्धिविराजित-धनकी अतिशय समृद्धिसे विराजित होकर भी पहलेकी आशाके वशसे शुभ उदयसे युक्त-पुण्यशाली भूभृत्-राजाकी सेवा ३५ करता है यह विरुद्ध बात है ( पक्षमें पुनर्वसु नक्षत्रोंसे शोभित तथा स्वातिनक्षत्रकी समृद्धिसे विराजित होकर भी पूर्व दिशाके वशसे शुभोदयभूभृत्-उत्तम उदयाचलकी सेवा प्रतिदिन १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001712
Book TitlePurudev Champoo Prabandh
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages476
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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